जातिवाद से आप क्या समझते हैं?
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कई लोगो को भारत कि जाति व्यवस्था के बारे मे पता या सुना है। यह बहुत अफसोस कि बात है कि भारत एक जाति आधारित समाज है। जातिया आम तौर पर हिंदुओं से जोड़ी जाती हैं, लेकिन भारत में लगभग सभी धर्म इसके साथ प्रभावित हो गए हैं। जाति व्यवस्था भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराईयो मे से एक है। भारतीय समाज की यह जाति व्यवस्था 3000 वर्ष पुरानी है। कई मायनों में, जाति व्यवस्था गंभीर सामाजिक भेदभाव और शोषण का सबसे अच्छा उदाहरण है। जाति व्यवस्था के कुछ भाग है:
१) ब्राह्मण
२)क्षत्रिय
३)वैष्णव
४)शूद्र
निम्न जाति के लोगों को आम तौर पर अछूत कहा जाता है। संवैधानिक कानूनों के तहत इस तरह के भेदभाव को अवैध और कानून के तहत दंडनीय है। भेदभाव यह कुछ 65 साल पहले, स्वतंत्र भारत के संविधान में प्रत्येक और भारत के हर नागरिक को समान अधिकार दिया हुआ करते थे, के रूप में के रूप में गंभीर नहीं है हालांकि, हालांकि इस तरह की प्रणाली वर्तमान भारतीय समाज में मौजूद है। [1] जाति-प्रथा हिन्दू समाज की एक प्रमुख विशेषता है। प्राचीन समय पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि इस प्रथा का लोगो के सामाजिक , आर्थिक जीवन पर विशेष प्राभाव रहा है। वास्तव मे समाज मे आर्थिक मजबुती और क्षमता बढाने के लिए श्रम विभाजन के आधार पर इस प्रथा की उत्पत्ति हुई थी। आरन्भ मे इस विभाजन मे सरलता थी और एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति को अपना सकता था। परन्तु समय के साथ - साथ इस क्षेत्र मे सन्कीर्णाता आ गई। [2]
जाति प्रथा का प्रचलन केवल भारत मे नही बल्कि मिस्र , यूरोप आदि मे भी अपेक्षाकृत क्षीण रूप मे विदयमान थी। 'जाति' शब्द का उदभव पुर्तगाली भाषा से हुआ है। पी ए सोरोकिन ने अपनी पुस्तक 'सोशल मोबिलिटी' मे लिख है, " मानव जाति के इतिहास मे बिना किसी स्तर विभाजन के, उसने रह्ने वाले सदस्यो की समानता एक कल्पना मात्र है।" तथा सी एच फूले का कथन है "वर्ग - विभेद वशानुगत होता है, तो उसे जाति कह्ते है "। इस विष्य मे अनेक मत स्वीकार किए गए है। राजनेतिक मत के अनुसार जाति प्रथा उच्च के ब्राहणो की चाल थी। व्यावसायिक मत के अनुसार यह पारिवारीक व्यवसाय से उत्त्पन हुई है। साम्प्रादायिक मत के अनुसार जब विभिन्न सम्म्प्रदाय सनगठित होकर अपनी अलग जाती का निर्माण करते है, तो इसे जाति प्रथा की उत्पत्ति कह्ते है। परम्परागत मत के अनुसार यह प्रथा भगवान द्वारा विभिन्न कार्यो की दृष्टि से निर्मेत की गए है।[3]
पॉटर कुम्हार
कुछ लोग यह सोचते है कि मनु ने "मनु स्मृति" मे मानव समाज को चार श्रेणियो मे विभाजित किया है, ब्राहमण , क्षत्रिय , वेश्य और शुद्र। विकास सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक विकास के कारण जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई है। सभ्यता के लंबे और मन्द विकास के कारण जाति प्रथा मे कुछ दोष भी आते गए। इसका सबसे बङा छुआछुत की भावना है। परन्तु शिक्षा केन् प्रसार से यह सामाजिक बुराई दूर होती जा रही है।
जाति प्रथा की कुछ विशेषताऍ भी है। श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण इससे श्रमिक वर्ग अपने कार्य मे निपुण होता गया क्योकि श्रम विभाजन का यह कम पीढियो तक चलता रहा था। इससे भविष्य - चुनाव की समस्या और बेरोजगारी की समस्या भी दूर हो गए। तथापि जाति प्रथा मुख्यत: एक बुराई ही है। इसके कारण संकीर्णना की भावना का प्रसार होता है और सामाजिक , राष्ट्रिय एकता मे बाधा आती है जो कि राष्ट्रिय और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है। बङे पेमाने के उद्योग श्रमिको के अभाव मे लाभ प्राप्त नही कर सकते। जाति प्रथा में बेटा पति के व्यवसाय को अपनाता है , इस व्यवस्था मे पेशे के परिवर्तन की सन्भावना बहुत कम हो जाती है। जाति प्रथा से उच्च श्रेणी के मनुष्यों में शारीरिक श्रम को निम्न समझने की भावना आ गई है। विशिष्टता की भावना उत्पन्न होने के कारण प्रगति कर्य धीमी गति से होता है। यह खुशी की बात है कि इस व्यवस्था की जङे अब ढीली होती जा रही है। वर्षो से शोषित अनुसूचित जाति के लोगो के उत्थान के लिए सरकार उच्च स्तर पर कार्य कर रही है। संविधान द्वारा उनको विशेष अधिकार दिए जा रहे है। उन्हे सरकारी पदो और शैक्षणिक सनस्थानो मे प्रवेश प्राप्ति मे प्राथमिकता और छुट दी जाती है। आज की पीढी का प्रमुख कर्त्तव्य जाति - व्यवस्था को समाप्त करना है क्योकि इसके कारण समाज मे असमानता , एकाधिकार , विद्वेष आदी दोष उत्पन्न हो जाते है। वर्गहीन एमव गतिहीन समाज की रचना के लिए अन्तर्जातीय भोज और विवाह होने चाहिए। इससे भारत की उन्नति होगी और भारत ही समतावादी राष्ट्र के रूप मे उभर सकेगा। [4]
Explanation:
भारत में घूमते हुए यदि किसी भारतीय से उसकी जाति पूछ ली जाए, तो उसके लिए ये बिलकुल भी अचरज का विषय नहीं होगा,क्यूंकि स्वंत्रता के 71 वर्ष बाद भी इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में चाहे मात्र कुछ घंटो का संवाद बनाना हो या जिन्दगी भर के लिए निभाने वाला कोई रिश्ता, सिर्फ जाति का मुद्दा ही है जो दो लोगों को जोड़ता हैं. इसलिए शायद जातिवाद पर बात करना आवश्यक हो गया हैं. इसकी परिभाषा भी कोई सीमित नहीं हैं,जातिवाद शब्द के भीतर जो स्वार्थ छुपकर बैठा हैं, वो ही इसे एक शब्द में ही अच्छे से समझा सकता हैं. वास्तव में जातिवाद जिन दो शब्दों से मिलकर बना है वो ही इसकी दिशा को मोड़ देते हैं, “जाति” का अर्थ हैं वो समुदाय जो आपस में आर्थिक और सामाजिक सम्बन्धों से जुड़ा हुआ हो, और “वाद” का मतलब कोई व्यवस्थित मत या सिद्धांत जिसकी अधिकता कब हो जाती हैं पता नहीं चलता, ऐसे में जाति+वाद से मिलकर बना यह जातिवाद शब्द किसी एक समुदाय विशेष को ही नहीं बल्कि पूरे समाज को गलत तरीके से प्रभावित कर सकता हैं. और अब राजनीति में इसका उपयोग बहुत किया जाता हैं इसी कारण शायद भारत जैसे पंथ-निरपेक्ष, धर्म-निरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में भी जातिवाद को इतना पोषण मिल रहा हैं.