Hindi, asked by prabhakar952353, 8 months ago

जीवन का आरंभ जैसे शैशव है वैसे ही कला गीत का ग्राम गीत हैl इस का आशय स्पष्ट कीजिएl​

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Answered by sawarnjasvir
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Explanation:

बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में विद्यार्थी जीवन में एम्.ए.(हिन्दी) की कक्षा में हिन्दी के प्राचीन एवं मध्ययुगीन काव्य के अद्वितीय अध्येता एवं पण्डित-प्रकांड तथा निराला काव्य के अद्भुत व्याख्याता गुरुवर प्रमोद जी की कक्षा में पढ़ने का दुर्लभ सौभाग्य मिला था. उन्होंने किसी सन्दर्भ में डॉ.लक्ष्मीनारायण सिंह सुधांशु को उद्धृत किया था, जो तब से अब तक ज्यों का त्यों दिमाग में बैठा हुआ है . सुधांशु जी की मान्यता है : 'ग्रामगीत वह जातीय आशुकवित्व है जो कल्प और क्रीड़ा के ताल पर रचा जाता है.'

किन्तु, ध्यान रखना ज़रूरी है कि इस 'जातीय आशुकवित्व' में 'कल्प और क्रीड़ा के ताल पर' जो कुछ भी रचा और गाया जाता है वह हमेशा निर्दोष और व्यापक जनसमाज के हित में हो ही, यह आवश्यक नहीं.

हमारे मार्क्सवादी मित्र प्राय: एक उक्ति दुहराते हैं - 'शासक वर्ग के ही विचार शासक विचार होते हैं.' इन्हीं शासक विचारों में से एक है पितृसत्तात्मक मानसिकता से निष्पन्न मर्दवादी सोच,जिसके तहत लगभग मान लिया गया है कि स्त्री की तुलना में पुरुष प्राय: श्रेष्ठ, बलवान ,विवेकशील,साहसी और पराक्रमी होता है. परिवार में पुत्र का पैदा होना हर हालत में पुत्री के जन्म के मुकाबले प्राय: मंगलमय माना जाता है. उल्लेख मिलता है की पुराण काल में पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ किए जाते थे और अब गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण के बाद पुत्र -जन्म की संभावना के न होने की पुष्टि हो जाने पर बहुत से दम्पतियों द्वारा नीम हकीम ही नहीं,बल्कि प्रसव कराने की औपचारिक शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त महिला चिकित्सकों एवं नर्सों की मदद से बड़े पैमाने पर कन्या - भ्रूणह्त्या होती है. इस जघन्य कृत्य में परिवार की कुछ महिलाओं की भूमिका की तो बात ही क्या, कई बार खुद गर्भवती स्त्री तक भी इसके लिए कुछ शुरुआती ना-नूकुर के साथ सहमत हो जाती है, कहना न होगा कि इस जघन्य कृत्य के मूल में अनुकूलन की शिकार स्त्री शरीधारिणी 'पुरुष' की मानसिकता है.

अपनी बेटी या परिवार-समाज की किसी लड़की को प्यार से 'बेटा' कहकर पुकारने के मूल में भी पितृसत्तात्मक मानसिकता ही है.

देरिदा द्वारा पाठ-विश्लेषण के लिए निर्देशित पद्धति का अनुप्रयोग करते हुए 'छठ व्रत' के दरमियान गाए जानेवाले एक गीत का विखंडन करने पर परम्परा से विरासत में प्राप्त पितृसत्तात्मक मानसिकता को श्रद्धा के साथ गाने वाली स्त्रियों के गायनक्रम में अनजाने ही बेपर्द होते लक्षित किया जा सकता है :

हे छठी माता ! करब रउरी सेवा

रउरे सेवैते में निर्मल काया .

सभा शोभित बेटा माँगिले

लछमी माँगिले पूतोह

हे छठी माता ...

रुनुखी-झुनिखी बेटी माँगिले

पढ़ल पंडितवा दमाद

हे छठी माता करब रउरी सेवा

रउरे सेवैते में निर्मल काया.

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