जीवन की कलात्मकता क्या हे
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उन्नीस सौ सोलह….मैंने पहली बार बापू को देखा था.तब से एक पूरा ज़माना गुजर गया है. (तब से आज तक की) भारत की कहानी एक बैले और रोमांस की तरह की रही है…..इस दौर के भारत की आश्चर्यजनक बात सिर्फ यह नहीं है कि प्रायः पूरा देश एक उदात्त स्तर पर सक्रिय रहा,बल्कि यह कि इस ऊंची सतह पर बहुत लंबी अवधि तक वह बना रह सका.’ गांधी की ह्त्या के ठीक बाद ‘हरिजन’ के एक लेख की शुरुआत नेहरू ने इस तरह की.
देश को इस उदात्त सतह पर ले जाने के लिए वे गांधी को श्रेय देते हैं और उनके जीवन पर विचार करते हुए उसे एक कलात्मक रचना की संज्ञा देते हैं,‘कठिन कार्य और गतिविधियों से भरे जीवन में जिसमें मामूलीपन के बीच से उन्होंने मौलिक दुस्साहस किए,शायद ही कोई विसंवादी स्वर हो.‘उनका बहुस्तरीय जीवन एक विशाल राग में बदल गया और वे अनायास ही एक पूर्ण कलाकार में बदलते गए, ‘स्पष्ट हो गया कि सत्य और भलाई की तलाश से यह कलात्मकता पैदा होती है.’
जैसे-जैसे वे वृद्ध होते गए,उनका शरीर जैसे उनकी भव्य आत्मा का वाहन मात्र रह गया.उन्हें सुनते और देखते हुए उनके शरीर का मानो ख्याल ही नहीं रहता था.वे जहाँ होते थे वह जैसे मंदिर बन जाता था और जहाँ उनके चरण पड़ते थे वह वह पवित्र भूमि हो उठती थी.
नेहरू ने गांधी की मृत्यु में भी भव्यता और कलात्मकता देखी. वे धीरे-धीरे छीजते हुए नहीं गुजरे जैसी बुढ़ापे की मौत होती है. ‘लेकिन गांधी का जीवन इससे कुछ अधिक था क्योंकि वे हमारे दिल-दिमाग में प्रवेश कर गए और उन्हें बदलते हुए अलग गढ़न दे दी.’, नेहरू ने लिखा, ‘गांधी-पीढ़ी गुजर जाएगी लेकिन वह चीज़ रह जाएगी क्योंकि वह भारत की आत्मा का अंश बन गई है.’
गाँधी के बारे में बात करते समय नेहरू की काव्यात्मकता फूट पड़ती है.अमृता शेरगिल ने नेहरू के व्यक्तित्व में भी एक प्रकार की कलात्मकता देखी थी. क्या गांधी या नेहरू का जीवन अनायास ही कलात्मक हो उठा? कलात्मक जीवन का अर्थ क्या है?
कला के बारे में दो तरह से विचार किया जा सकता है: एक जब वह वस्तु या प्रस्तुति होती है, दूसरी उसकी प्रक्रिया या जब वह एक अदायगी की तरह देखी जाए. दर्शक या भोक्ता की तरह कलाकृति में हम कोई सीवन, कोई दरार,ऊबड़खाबड़पन पसंद नहीं करते.कलाकार सृजन या निर्माण के कर्म में जो श्रम करता है,कृति पर उसके निशान छूटने नहीं चाहिए.लेकिन क्या उस प्रयास से दर्शक या भोक्ता को अनजान भी रहना चाहिए?
कृति के निर्माण में रचनाकार का निवेश अनेक प्रकार का होता है. उसकी स्मृति,उसका पर्यवेक्षण,कला संसार से उसकी घनिष्ठता,इन सबकी भूमिका एक-एक रचना के निर्माण में होती है. साथ ही अनुपात और संगति की चेतना की अपनी जगह है.कलाकार हर रचना में होता है, इस रूप में हर रचना आत्मकथन होती है लेकिन सीमा से अधिक आत्मप्रकाश कृति को नष्ट कर सकता है. इसलिए कलाकार यत्नपूर्वक खुद को अदृश्य रखता है.
मनुष्य का जीवन इस रूप में विशिष्ट है कि वह जिया जाता है. यों कहें वह खुद जी नहीं लिया जाता, उसे जीना होता है.इस तरह वह एक जिम्मेदारी बन जाता है.जीवन जीना है, इसका अहसास दो तरह से होता है. एक, जब वह बोझ जान पड़े, दूसरे जब वह एक सार्थक,आनंदपूर्ण अवसर की तरह स्वीकार किया जाए.दूसरी स्थति में खुद को हमेशा अपने जीवन के समक्ष रखना होता है. जिसका अर्थ है हमेसा एक आलोचनात्मक निगाह से अपने जीवन की परीक्षा.जीवन और उसे जीने वाले में पार्थक्य का होना आवश्यक है अगर उसे निरंतर बेहतर होते जाना है.
प्रत्येक व्यक्ति विलक्षण है लेकिन व्यापक अर्थ में वह हो चुके की आवृत्ति भी है. इसीलिए वह अन्य से तुलनीय है.हम स्वायत्त हैं लेकिन जीते संबंधों के दायरे में हैं. हर जीवन का मूल्य इस बात से आंका जाता है कि वह कितने दायरों का स्पर्श करता है या कितने वृत्त उसे केंद्र बना कर खींचे जाते हैं. जीवन का मूल्य इससे भी तय होता है कि वह कितने कम लोगों का अपने लिए उपयोग करता है और कितने जीवन उसके बिना पूरे नहीं होते.एक अर्थ में वह निस्संग होता है, दूसरे अर्थ में उसकी संलग्नता का कोई छोर नहीं है.
Answer:
kuchni pgl bando se pala pd jata h .....