जीवन में गुरु का महत्व ( निबंध लेखन )
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माँ बच्चे को पहला जन्म देती है। हम मां के माध्यम से दुनिया में आते हैं। लेकिन दूसरा जन्म गुरु के माध्यम से होता है। गुरु आपको ज्ञान और कौशल प्रदान करता है।
हम सभी शिक्षक, मार्गदर्शक, गुरु की भूमिका निभाते हैं, लेकिन जब आध्यात्मिक ज्ञान इतना अधिक होता है, तो उसे सत्गुरु कहा जाता है। एक आचार्य ज्ञान देता है और गुरु जागरूकता की ऊंचाई देता है और आपको जीवित बनाता है। आचार्य जानकारी देते हैं; गुरु बुद्धि देता है, एक जागृत बुद्धि।
गुरु एक तत्व, एक गुण जो आपके अंदर है। यह एक शरीर या एक रूप तक सीमित नहीं है। आपके लिए गुरु बहुत बड़ा है। गुरु आपके मना करने या विद्रोह के बावजूद आपके जीवन में आता है।
गुरु पूर्णिमा के दिन हम गुरु-शिष्य
परंपरा का सम्मान करते हैं। महान
स्वप्नदद्रष्टाओं की पीढ़ियों ने
वेदांत-आत्म-प्रबंधन के विज्ञान-को
जीवित रखा था। गुरु शब्द का अर्थ है
‘अधंकार को दूर करने वाला’ । गुरु
अज्ञान को दूर करके हमें ज्ञान का
प्रकाश देता है। वह ज्ञान जो हमें
बतलाता है कि हम कौन हैं; विश्व से
कैसे जुड़ें और कैसे सच्ची सफलता प्राप्त
करें। सबसे अधिक महत्वपूर्ण कि कैसे
विश्व से ऊपर उठ कर अनश्वर
परमानंद के धाम पहुंचे। आज के दिन हम
फिर से अपने को मानव संपूर्णता के
प्रति अपने आप को समर्पित करते हैं।
वेदांत का अध्ययन करें,उसे अंगीकार
करें और उसी के अनुसार जीयें ताकि हम
उसे भविष्य की पीढ़ियों को
हस्तातंरित कर सके। वेदांत हमे बाहर
से राजसी बनाता है ओर भीतर से
ऋषि। बिना ऋषि बने भौतिक सफलता
भी हमारे हाथ नहीं लगती है।
शिक्षक का ज्ञान और छात्र की
ऊर्जा का एक सम्मिलन एक जीवंत
प्रगतिशील समाज के निर्वाण की ओर
ले जाता है। आज छात्रों की प्रवृत्ति
शिक्षक को कमतर आंकना है, आज का
दिन उस संतुलन को पुन:स्थापित करने
में सहायक होता है। यह जीवन के हर
क्षेत्र में गुरु के महत्त्व पर बल देता
है। एक खिलाड़ी की प्रतिभा एक
कोच की विशेषज्ञता के अंतर्गत दिशा
प्राप्त करती है। समर्पित संरक्षक
गुरु एक संगीतकार की प्रतिभा को
तराशता है। अध्यात्म के मार्ग में एक
खोजी के मस्तिष्क का अज्ञान गुरु का
प्रबोध दूर करता है। गुरु-शिष्य का
संबंध सर्वाधिक महत्व का है। गुरु के
लिये गोविंद जैसी श्रद्धा होती है।
ब्रह्म-विद् और ब्रह्मज्ञानी तथा
ईश्वरीय साक्षात्कार में स्थित गुरु
जो सूक्ष्मतम आध्यात्मिक संकल्पनाओं
को प्रदान करने मे समर्थ हो, उसके
मार्गदर्शन के बिना आध्यात्मिक
विकास असंभव है। गुरु के प्रति संपूर्ण
समर्पण – प्रपत्ति – एक छात्र की
सर्व प्रथम योग्यता है इसका मतलब
अंधानुकरण नहीं है। खोजी को सिखाये
गये सत्यों पर सवाल उठाना,
छानबीन और विश्लेषण करना चाहिये
ताकि वह अपने व्यक्तित्व को समझ
सके, आत्मसात कर सके तथा उच्चतर
क्षेत्र तक उसका रूपांतरण कर सके।
इसे प्रश्न कहते हैं। अंतत: सेवा ही एक
श्रेष्ठ छात्र की पहचान है। क्योंकि
बिना शर्त सेवा ही छात्र को
विन्रमता का महत्व सिखाती है जो
उसे गुरु के ज्ञान को ग्रहण करने के
अनुकूल बनाती है । गुरु पूर्णिमा का
उल्लेख व्यास पूर्णिमा की तरह किया
जाता है। व्यास ने वेदों को
संहिताबद्ध किया था। जिस किसी
भी स्थान से आध्यात्मिक या वैदिक
ज्ञान प्रदान किया जाता है उसे
वेदांत में व्यास के अद्वितीय योगदान
को स्वीकार करने के लिये व्यासपीठ
कहा जाता है। सभी शिक्षक अपना
स्थान ग्रहण करने के पहले व्यास के
सामने नमन करते हैं। उनका सम्मान
प्रथम गुरु की तरह किया जाता है,
हालाँकि गुरु-शिष्य परंपरा का आरंभ
उनके बहुत पहले हो चुका था। व्यास
ऋषि पराशर और मछुहारिन सत्यवती
के पुत्र और प्रसिद्ध ऋषि वशिष्ठ के
पोते थे। वे ऋषि पिता के ज्ञान और
मछुहारिन की व्यवहारिकता की
साकार मूर्ति थे। जीवन में आगे बढ़ने के
लिये दोनों को अपनाना अनिवार्य
है। हिंदू कैलेण्डर के अनुसार व्यास का
जन्म आषाढ़ की पूर्णिमा को हुआ था।
‘पूर्णिमा’ प्रकाश का प्रतीक है और
व्यास पूर्णिमा आध्यात्मिक प्रबोधन
की ओर संकेत करती है। व्यास
महाकाव्य महाभारत के रचयिता थे।
महाभारत न केवल एक कला,
काव्यात्मक श्रेष्ठता और मनोरंजन
की कृति है, बल्कि जीवन के बारे में
इसकी उपयोगी शिक्षाओं और भागवत
गीता के अमर संदेश ने युगों से
भारतीयों की पीढ़ियों को प्रेरित
किया है। ऑलिवर गोल्डस्मिथ के
शब्दों मेँ “और वे निहारते रहे/और
विस्मय बढ़ता गया/कि एक मस्तक में
इतना सब ज्ञान कैसे सिमट गया”, इस
बात की सटीक अभिव्यक्ति है कि
व्यास इतने महान दृष्टा थे और गुरु
पूर्णिमा के दिन हम उनका सम्मान
करते हैं।