Hindi, asked by vishnu86677, 11 months ago

जीवन में घृणा का स्थान by Premchand summary​

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Answered by Anonymous
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❤-मानव जीवन में साहित्य का सबसे अधिक महत्व है क्योंकि साहित्य ही मनुष्य की बुराइयों का अंत करता है । साहित्य समाज का दर्पण होता है । समाज को साहित्य से ज्ञान की प्राप्ति होती है । ... साहित्य की अनेक विधाएं होती हैं जैसे कि खंडकाव्य , कहानी , महाकाव्य , नाटक आदि

Answered by sujith2m2c
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Answer:

निन्दा. क्रोध और घृणा यह सभी दुर्गुण है, लेकिन मानव जीवन में अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिए, तो संसार नरक हो जाएगा। यह निन्दा ही का भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है, यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है। निन्दा का भय न हो, क्रोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो विशृखल हो जाए और समाज न ट हो जाए। इनका जब हम दुरुपयोग करते हैं, तभी ये दुर्गुण हो जाते हैं लेकिन दुरुपयोग तो अगर दया, करुणा, प्रशंसा और भक्ति का भी किया जाए. तो वह दुर्गुण हो जायेंगे। अन्धी दया अपने पात्र को पुरु गर्थहीन बना देती है। अन्धी करुणा, कायर, अन्धी प्रशंसा घमंडी और अंच भक्ति धन। प्रकृति जो कुछ करती है, जीवन की रक्षा हो के लिए करती है। आत्म-रक्षा प्राणी का सबसे बड़ा धर्म है और हमारी सभी भावनाएँ और मनोवृत्तियाँ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं। कौन नहीं जानता कि वही है । जो प्राणों का नाश कर सकता है. प्राणों का संकट भी दूर कर सकता है। अवसर और अवस्था का भेद है। मनु य को जिन्दगी से. दुर्गन्ध से जघन्य वस्तुओं से क्यों स्वाभाविक घृणा होती है? केवल इसीलिए कि गन्दगी और दुर्गन्ध से बचे रहना उसकी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक है। जिन प्राणियों में घृणा का भाव विकसित नहीं हुआ, उनकी रक्षा के लिए प्रकृति ने उनमें दबकने दम साध लेने या छिप जाने की क्ति डाल दी है। मनु य विकास क्षेत्र में उन्नति करते-करते इस पद को पहुँच गया है कि उसे हानिकर वस्तुओं से आप ही आप घृणा हो जाती है। घृणा का ही उग्र रूप भय है और परि कृत रूप विवेक। ये तीनों एक ही वस्तु उनमें केवल मात्रा का अन्तर है।

के नाम है, तो घृणा स्वाभाविक मनोवृत्ति है और प्रकृति द्वारा आत्म-रक्षा के लिए सिरजी गयी है। या यों कहो कि वह आत्म-रक्षा का ही एक रूप है। अगर हम उससे वंचित जा जाएँ है हमारा अस्तित्व बहुत दिन न रहे। जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है. उसे शिथिल होने देना, अपने पॉव में कुल्हाड़ी मारना है। हममें अगर भय न हो तो साहस का उदय कहाँ से हो। बल्कि जिस तरह घृणा का उग्र रूप भय है, उसी तरह भय का प्रचंड रूप ही साहेस है। जरूरत केवल इस बात की है कि घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें। इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें। धूर्त से हमें क्यों घृणा होती है? इसीलिए न उसमें धूतता है। अगर आज वह धूर्तता का परित्याग कर दे, तो हमारी घृणा भी जाती रहेगी। एक रावी के मुँह से राब की दुर्गन्ध आने के कारण हमें उससे घृणा होती है, लेकिन थोड़ी देर बाद जब उसका नशा उतर जाता है और उसके मुँह से दुर्गन्ध आना बन्द हो जाती है तो हमारी घृणा भी गायब हो जाती है। एक पाखंडी पुजारी को सरल ग्रामीणों को ठगते देखकर हमें उससे घृणा होती है, लेकिन कल उसी पुजारी को हम ग्रामीणों की सेवा करते देखें, तो हमें एससे भक्ति होगी घृणा का उद्देश्य ही यह है कि उससे बुराइयों का परि कार हो। पाखंड, धूर्तता, अन्याय. बलात्कार और ऐसी ही अन्य दु प्रवृत्तियों के प्रति हमारे अन्दर जितनी ही प्रचंड घृणा हो उतनी ही कल्याणकारी होगी। घृणा के शिथिल होने से ही हम बहुधा स्वयं उन्हीं बुराइयों में पड़ जाते है और स्वय वैसा ही घृणित व्यवहार करने लगते हैं जिसमें प्रचंड घृणा है, वह जान पर खेलकर भी उनसे अपनी रक्षा करेगा और तभी उनकी जड़ खोदकर फेंक देने में वह अपने प्राणों की बाजी लगा देगा। महात्मा गाँधी इसीलिए अछूतपन को मिटाने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे है कि उन्हें अछूतपन से प्रचण्ड घृणा है।

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