'जीवन में जड़ एट चेतन दोनों ही प्रकार की वस्तुयों की आवश्यकता है दोनों का महत्व अपना स्थान
रखता है । जैव विविधिता को दर्षाते हुए विज्ञापन तैयार कीजिए।
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जड़ एवं चेतन दोनों की ही आवश्यकता
विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं | इस विश्व ब्रह्मांड में दो-शक्ति-सत्ताएँ आच्छादित हैं, एक जड़ और दूसरी है चेतन, इन्हीं को प्रकृति और पुरुष भी कहते हैं, स्थूल और सूक्ष्म भी, इन दोनों का पृथक-पृथक अस्तित्व और महत्त्व है, पर सुयोग तभी बनता है जब वे एक दूसरे की सहायक बनकर संयुक्त शक्ति के रूप में विकसित होतीं और अपने चमत्कार दिखाती हैं। उदाहरण के लिए शरीर को ही लिया जायें, काया पंचतत्त्वों द्वारा विनिर्मित है, अंग अवयवों में रक्त-मांस, तंतु-झिल्ली, अस्थिमज्जा का मिलन-एकीकरण है, इसीलिये उनसे इच्छानुरूप काम कराया जा सकता है, शरीर तंत्र की प्रकृति की करामात भी इसे कह सकते हैं, इतने पर भी वह अपूर्ण है।
उसके भीतर एक चेतना काम करती है, उसी का अचेतन भाग श्वास-प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, आकुंचन-प्रकुंचन, सुषुप्ति-जागृति आदि की व्यवस्था करता है, और इच्छानुरूप कार्य करने का आदेश देकर अनेकानेक क्रिया कृत्य संपन्न करता है,
जब तक जड़-चेतन का संयोग है, तभी तक प्राणी जीवित रहता है, दोनों के विलग हो जाने पर मृत्यु हो जाती है।
अभिप्राय इतना भर है कि जड़ और चेतन का समन्वय ही कोई सार्थक स्थिति का निर्माण करता है, अन्यथा इस विशाल ब्रह्मांड में बिखरा पड़ा पदार्थ तत्त्व भी अपनी अस्त व्यवस्था और कुरूपता का ही परिचय देता है, धरती पर ठोस रूप में, जलाशयों में द्रव रूप में, आकाश में वाष्पीभूत स्थिति में पदार्थ सत्ता बेतुके रूप में बिखरी पड़ी रहती है।
आरंभिक काल से लेकर अब तक प्रकृति की शक्तियों का रहस्योद्घाटन सुनियोजन, और महत्त्वपूर्ण उपयोग संभव बनाने वाली कुशलता का नाम ही विज्ञान है,
इस चमत्कारी उपलब्धि को जड़ चेतन का समन्वय ही कह सकते हैं, इसी के बल पर वह प्रगति संभव हुई है, जिसके आधार पर इस धरातल पर सर्वत्र सुख साधनों के अंबार खड़े हो गए हैं | जीभ का चटोरापन पेट खराब करने के उपरांत स्वास्थ्य का ही सफाया कर देता है, कामुकता के लिए आतुर लोग जीवनी शक्ति को निचोड़ डालते हैं, बिना परिश्रम बहुत बड़ी संपदा अर्जित कर लेने के फेर में अपराधी कुकर्मो की श्रृंखला चल पड़ती है, तनिक-सी स्फूर्ति पाने के लिए लोग नशेबाजी के कुचक्र में फँसकर एक प्रकार से अपंग अपाहिज बनकर रह जाते हैं, वैभव का विपुल संचय तृष्णा कहलाता है, वासना के उपरांत तृष्णा ही पदार्थ संपदा का बुरे किस्म का दुरुपयोग है। इसी त्रिदोष में यह अहंकार भी है, जो दूसरों की दृष्टि में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिए ऐसे विचित्र आडंबर विनिर्मित करता है, मानो वही सबसे सुंदर, बुद्धिमान, पराक्रमी और संपन्न हो, ठाट-बाट की खर्चीली साज-सज्जा इसी कुचक्र की प्रेरणा से खड़ी करनी पड़ती है, सस्ती वाहवाही लूटने के लिए नाम छपवाने, बड़े कहलाने के लिए ऐसी विडंबनाएँ रचनी पड़ती हैं, जो सर्वथा निस्सार होते हुए भी प्राणप्रिय लगती हैं।