जीवन में सद्गुणों का क्या महत्व है?
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प्रत्येक व्यक्ति सुंदर बनना चाहता है, सुंदर दिखना चाहता है। इसके लिए वह तरह-तरह के क्रीम-पाउडर का भी इस्तेमाल करता है। कई लोगों को अपने रंग-रूप पर अभिमान भी होता है। किंतु सुंदरता का असली महत्व कोई नहीं जानता। सुंदरता की परिभाषा कोई नहीं गढ़ सकता। ग्रीस का महान दार्शनिक सुकरात बहुत ही कुरूप था। वह सदा अपने हाथ में एक दर्पण रखता था और बारबार उसमें अपना चेहरा देखा करता था। एक बार किसी ने उससे पूछा कि आप बारबार दर्पण क्यों देखते हैं? उसकी बात सुनकर सुकरात कुछ क्षण चुप रहा। फिर थोड़ा हंस कर बोला, मैं अपना प्रतिबिम्ब देखकर यह जानने की कोशिश करता हूँ कि अपने रूप के बरक्स मैं अब तक अपने जीवन को कितना सुंदर बना पाया हूं। लोगों को यह बात समझ नहीं आई। सुकरात ने समझाया, मैं अपने शरीर की कुरूपता को सुंदरता में बदलना चाहता हूं। उत्तरोतर और अधिक सुंदर बनना चाहता हूँ। बार-बार दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखकर परीक्षा लेता रहता हूं कि मैं गुण, ज्ञान, गौरव, सद्गुणों में उत्तरोतर कितना अधिक सुंदर बन पाया। मैं अपने विचारों और संस्कारों से दूसरों की तुलना में अधिक सुंदर बनना चाहता हूँ। सुकरात ने आगे कहा, लेकिन सुंदर दिखने वाले महिला-पुरुषों से भी मैं यही कहना चाहता हूं कि वे अपनी आकृति-प्रकृति पर, शरीर की सुंदरता पर अभिमान न करें। वे भी सद्व्यवहार और सद्गुणों से अपनी सुंदरता बढ़ाने का प्रयास करें। भारतीय परम्परा में नाम रूप को अनित्य माना गया है, इसलिए सत् चित् आनन्द की प्राप्ति को ही सौंदर्य प्राप्ति का मार्ग माना गया है। अष्टावक्र के शरीर के सभी अंग विकृत थे, उसके आठों अंग टेढ़े-मेढ़े थे। एक दिन अष्टावक्र राजा जनक की विद्वत सभा में पहुँचे। उनके टेढ़े-मेढ़े अंग देखकर सभा में उपस्थित सभासद हंसने लगे। कुछ धीरे-धीरे तो कुछ जोर-जोर से। अष्टावक्र कुछ क्षण गंभीर हो गए। फिर राजा जनक से कहा, राजन! मैंने तो सुना था कि आपकी सभा में विद्वान और पंडितजनों को ही स्थान मिलता है। लेकिन इन लोगों को देख कर तो ऐसा नहीं लगता। अष्टावक्र की बात सुनकर सभा भवन के सभी विद्वान पंडित बौखला गए, क्रोध से तिलमिला कर अपने आसन पर उठ खड़े हुए। राजा जनक भी अष्टावक्र की ओर प्रश्नवाचक नजरों से देखने लगे। तब अष्टावक्र ने जनक को कहा, विद्वान और पंडित उसे कहते हैं जो स्थूल से परे तत्व को देखने की दृष्टि रखता है। लेकिन इनकी दृष्टि तो सिर्फ मेरी चमड़ी तक गई, मेरे कुरूप शरीर तक गई, इन्होंने टेढ़े-मेढ़े अंगों तक ही देखा। अष्टावक्र की बात सुनकर सभा भवन में स्तब्धता छा गई। कुरूपता एवं सुंदरता का भेद सबकी समझ में आ गया। अष्टावक्र ने जनक से कहा- सुना है आपकी सभा में कोई भी विद्वान आपकी जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर पाया। असल में आपके प्रश्नों का समाधान चातुर्य का इस्तेमाल करने वाले विद्वान नहीं कर सकते, उनका समाधान कोई तत्वदर्शी विद्वान ही कर सकता है। राजा जनक ने उस कुरूप से दिखने वाले अष्टावक्र के ज्ञान में वास्तविक सौंदर्य के दर्शन किए। और इसी दिन से उन्होंने अष्टावक्र को अपना गुरु मान लिया। हर बाहरी सौंदर्य में सुंदरता नहीं होती, किंतु अंतरात्मा के ज्ञान में सुंदरता होती है। हर अच्छाई और गुण में सुंदरता बसी होती है। प्रत्येक सद्कार्य, सद्व्यवहार में भगवान की सुंदरता अभिव्यक्त होती है। हिन्दी भक्तिकालीन कवि मलिक मुहम्मद जायसी सुंदर नहीं थे। वे बहुत ही कुरूप थे। कई लोग तो उनको देख कर हंसने लगते थे। किन्तु जायसी उन सबसे यही कहते थे, मुझे देख कर मत हंसिए, मुझे बनाने वाले, मुझे रूप रंग देने वाले भगवान पर हंसिए। यही मुहम्मद जायसी अपने समय के सर्वप्रथम महाकाव्यकार बने, उनका नाम और साहित्य आज तक अमर है। सुंदरता तो ईश्वर प्रदत्त गुण है। भाव, भक्ति, कला और आचरण में इसकी अभिव्यक्ति होती है। शरीर की सुंदरता तो नश्वर है, क्षणिक है। किंतु सद्गुणों से मिली सुंदरता अमरता प्रदान कर देती है।
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जीवन में सद्गुणों का क्या महत्व है जीव जंतु
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