Hindi, asked by chandrakantvyavhare4, 3 months ago

जीवन में दया का महत्व 40 -50 शब्द में​

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Answered by ryuk663
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hello my friend ask in english i cant understand this

Answered by adityaisraji
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वैसे तो हमारा आज का समाज मूलत: ढांचागत मनुष्यों का समाज है जिसमें अधिकतम लोग अपनी वयक्तिक सुख-सुविधाओं के लिए लालायित रहते हैं और उन्हें प्राप्त कने के लिए सही गलत सारे तौर तरीके अपनाते हैं।यह स्वकेन्द्रित जीवन मनुष्य का जीवन नहीं माना जाता है। इसी मनुष्य गत ढांचा वाले समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी भी प्राणी के कष्ट, भूख, बीमारी को देखकर वही अनुभूति होती है जो उस आर्त्र प्राणी को हो रही होती है । यहीं से करुणा के भाव से दया के कर्म का जन्म होता है। एक ढांचागत मनुष्य भी ऐसे प्राणी को देखता है परन्तु उसे अपने किसी काम की जल्दी रहती है जिसमें उसका निहित स्वार्थ होता है और उसे ऐसे प्राणियों के पास एक पल ठहरना तो दूर इनके बारे में सोचने तक की फुर्सत नहीं होती, वह उपेक्षा कर आगे बढ़ जाता है और जो मनुष्य होते है वो अपनी सामर्थ्य भर उनकी सेवा और मदद करते हैं। महाप्राण निराला जी के बारे में एक प्रसंग उपर्युक्त शब्दों का आशय स्पष्ट करने के लिए समीचीन है। एक बार निराला जी रात में किसी कवि सम्मेलन से अपने घर इलाहाबाद में ही दारागंज को पैदल लौट रहे थे(उस समय आज कल के कवियों की तरह फ्लाइट, वाहन, पांच सितारा होटल में ठहरने खाने ड्रिंक आदि की व्यवस्था नहीं होती थी) जब दारागंज सटेशन के पास निराला जी पहुंचे तो उन्होंने देखा कि फुटपाथ पर लेटा एक व्यक्ति ठंढ़ से कांप रहा है और बुरी हालत में है। निराला जी उसके पास गये और उन्हें कवि सम्मेलन में पशमीना का नया शाल अंगवस्त्र के रुप में भेंट में मिला था उस व्यक्ति को ओढ़ा दिया।कुछ देर उसके पास खड़े रहे , देखा कि उसकी ठंढ़ अभी भी कम नहीं हुई तो स्वयं जो कम्बल ओढ़े थे वह भी उसके ऊपर डाल दिए। उनके पास जो पैसे थे सब उसको दे दिए और स्वयं ठिठुरते हुए अपने घर को जो वहां से करीब ही था , चले गए। यही मनुष्यत्व है जो जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। यही एकात्मभाव है। वर्तमान गलाकाट प्रतिस्पर्धा ,आपा-धापी की जीवन शैली में इसे कोरी मूर्खता कहा जाता है और इसके समर्थन में ढ़ेर सारे कुतर्क गढ़ लिए जाते हैं। यही कारण है कि समाज में संवेदनहीनता बढ़ रही है और दया करुणा आदमी के जीवन से विलोपित हो रही है। जीवन की सार्थकता आत्मिक सुख में है, जिसे ज्यातर लोग भ्रम के कारण आनन्द में तलाशते हैं और अतृप्त निरर्थक जीवन के साथ इस दुनिया से विदा हो जाते हैं।
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