ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ों का उल्लास बढ़ता जाता। ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ियों का दिल बैठता जाता।
prasang sahit vyakhya karein.
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ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ों का उल्लास बढ़ता जाता।
ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ियों का दिल बैठता जाता।
प्रसंग : ये प्रसंग ‘हरिशंकर परसाई’ द्वारा रचित कहानी “भेड़ और भेड़िया” में उस समय का जब जंगल में चुनाव होने की तारीख नजदीक आती जा रही थी।
व्याख्या : ‘भेड़ और भेड़िये’ कहानी की पृष्ठभूमि एक जंगल की है। वहाँ सभी जानवरों को लगने लगा है कि अब वह लोग विकास के उस स्तर पर पहुंच गए हैं कि जहां अब उन्हें एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था की जरूरत है। उसके लिए उन्हें भी लोकतंत्र रूपी शासन को अपन लेना चाहिए। ये सुनकर भेडें जो एकदम शाकाहारी और अहिंसक प्राणी थीं, उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा उन्होंने सोचा जब लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था हो जाएगी तो वे एक ऐसा कानून पास करवाएंगी कि किसी को हिंसा करने का अधिकार ना हो और सब को अपना जीवन जीने का अवसर मिले। इससे उन्हे भेड़ियों से कोई भय नही रहेगा।
इसी कारण जैसे-जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती जा रही थी, भेड़ों की खुशी बढ़ती जा रही थी, उन्हे लगने लगा था कि अब जंगल में लोकतंत्र कायम होने पर वो कानून पास करवा के भेड़ियों के भय से मुक्त हो जायेंगी, वहीं भेड़ोयों को ये चिंता हो रही थी कि लोकतंत्र के आने पर यदि भेड़ो का मनचाहा कानून पास हो गया तो उन्हे खाने के लिये भेड़ें नही मिल पायेंगी और उन्हे भूखों मरना पडे़गा या घास खाकर गुजारना पड़ेगा।
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