ज्यों निकलकर बादलों की गोद से,
थी अभी इक बूंद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी।
दैव,मेरे भाग्य में है क्या बदा,
मैं बनूंगी या मिलूँगी धूल में,
जल उलूंगी गिर अंगारे पर किसी,
च पडेंगी या कमल के फूल में।
mame
बह उठी उस काल इकऐसी हवा,
वह समंदर ओर आई अनमनी।
एक सुंदर सीप का था मुँह खुला,
वह उसी में जा गिरी, मोती बनी।
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लोग अकसर हैं झिझकते-सोचते.
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।,
किंतु घर का छोड़ना अकसर उन्हें,
बूंद लौं कुछ और ही देता है कर।
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