जब आवै संतोष धन , सब धन धुरी समान कहानी please answer it is important
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हरि अनंत, हरिकथा अनंता’ की भाँति हमारी इच्छाओं का भी कोई अंत नहीं होता। एक इच्छा पूरी होती नहीं कि दूसरी इच्छा पैदा हो जाती है। पूरा जीवन हम इच्छाओं के मूकड-जाल में फंसे रहते हैं। इच्छाओं के इस असीम सागर को पार करना तो किसी धन-कुबेर के लिए भी संभव नहीं। मानव की विचित्र प्रवत्ति होती है कि जितना उसके पास होता है वह उससे संतुष्ट नहीं होता। झोंपड़ी वाला एक पक्के मकान की, पक्के मकान वाला महल की चाह रखता है। भूखा दो रोटी चाहता है, जिसे रोटी मिल जाए उसे स्वादिष्ट भोजन चाहिए, छप्पन भोग चाहिए। यूँ तो व्यक्ति निन्यानवे के फेर में सदा से फंसता आया है किंतु जैसे-जैसे नए-नए ऐश्वर्य और भोग-विलास के साधन उपलब्ध होते जा रहे हैं व्यक्ति के जीवन से संतुष्टि तिरोहित होती जा रही है। असंतोष हमारे सभी तनावों के मूल में होता है। तनाव का सुख और आनंद से छत्तीस का आंकड़ा है। इसीलिए युगों पूर्व मनीषियों ने संतोष को इतना महत्त्व दिया। सारे प्रयत्न कर लेने पर भी यदि हम अपनी कोई इच्छा पूर्ण न कर सके तब हमें अपनी वर्तमान स्थिति में ही संतोष कर लेना चाहिए। प्राय: हम दूसरों की उन्नति, सुख समृद्धि देखकर उनसे ईर्ष्या करने लगते हैं। यह ईर्ष्या हममें असंतोष जगाती है और तब हमारे पास जो कुछ होता है, वह अर्थहीन लगने लगता है। यह सीख बड़ी उपयोगी है-‘देख पराई चूपड़ी, मत ललचावे जीव’। हमें अपनी चादर के अनुसार ही पैर पसारने चाहिए। जो संतुष्ट रहना सीख लेता है, जग में वही सुखी रहता है। आनंद, धन-संपत्ति या उपलब्धि में नहीं-संतोष में है। कबीर के दोहे में जीवन का सार है
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