Jab Aave Santosh Dhan Sab Dhan Dhuri Saman Hindi mein pallvan
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आज विश्व में जितना भी कलह एवं संघर्ष है उसका कारण इच्छाओं की लगातार वृद्धि है | प्रत्येक मनुष्य अपने वर्तमान से असंतुष्ट है और अधिकाधिक पा लेना चाहता है | उसमें संचय की वृत्ति पनपती जा रही है इस कारण जीवन अशांत हो चला है | हमें संतोषी स्वभाव में स्थित रहना सीखना होगा |
मानसिक तनाव को कम करने के लिए संतोष रखना आवश्यक है |दूसरे के हित का विचार भी हमें करना चाहिए | संतोष का अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनुष्य विकास हेतु प्रयत्नशील न बने क्योंकि व्यक्ति समाज और मानवता का भला तभी कर सकता जब अपने व्यक्तित्व को पूर्ण करने हेतु सतत प्रयत्नशील रहे | इसके लिए उसे उद्यम करना आवश्यक भी है |
व्यक्ति को विकास करने के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण रखना भी आवश्यक है | धन वैभव इंद्रियों को संतुष्टि नहीं देते बल्कि मनुष्य के मन में कल्याणकारी भावनाएं ही उसे आत्म संतुष्टि प्रदान करती हैं इसका ज्वलंत उदाहरण हम (भगवान बुद्ध) सिद्धार्थ को मान सकते हैं जो राजा शुद्धोधन के पुत्र थे और उन्हें महलों में किसी प्रकार की कमी नहीं थी ,फिर भी उन्हें शांति एवं संतोष की प्राप्ति तपस्या के द्वारा हुई अर्थात उस सत्य को पाने के लिए उन्होंने अपने समस्त सुखों का परित्याग कर दिया |
निष्कर्ष यही निकलता है कि सुख का संबंध साधनों से नहीं है अपितु मन:स्थिति से है ,इसीलिए कहा भी गया है -"संतोषी सदा सुखी" अर्थात प्रयास करने के बाद जो प्राप्त होता है उसमें सुख मानकर रहना मनुष्य की सद्वृत्ति का द्योतक है अन्यथा यदि हम सतत असंतोषी रहेंगे तो जीवन में कभी और किसी भी स्थिति में सुखी नहीं हो पाएंगे ; इसीलिए कहा गया है -"गो धन गज धन बाजि धन और रतन धन खानि जब आवे संतोष धन सब धन धूरी समान "
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विश्वास रूपी धन के सामने सभी धन बेकार होता है