Jab bachha chhota rehta h toh usko Maa se jada koi nhi samjhta h or yahi bachha bada ho jata h toh Maa ko Kuchh nhi samjhta h aysa kyu?
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कई तरह की रिसर्च की जा रही हैं. यहां तक की चार्ल्स डार्विन भी इंसानी विकास की थ्योरी पर काम करने की प्रेरणा का स्रोत अपने बेटे को मानते थे, जो उस वक़्त महज़ महज़ 66 दिन का था.
डार्विन ने अपने बच्चे की हर हरकत को नोट करना शुरू कर दिया. बाद में डार्विन ने इसे 'डायरी ऑफ़ ऑब्ज़र्वेशन' नाम की किताब की शक्ल में छपवाया भी.
हालांकि ये किताब बच्चों के ज़हन को समझने के लिए बहुत मददगार नहीं है, क्योंकि इसमें कई ऐसी बातें हैं, जो बहुत से बच्चों के बर्ताव पर सही नहीं बैठतीं. लेकिन इस किताब ने बच्चों के ज़हन के काम करने के तरीक़े पर रिसर्च का रास्ता हमवार किया.
हरेक रिसर्च एक क़दम आगे बेहतरी की ओर बढ़ी. हालांकि अभी तक कोई भी रिसर्च आख़िरी पड़ाव पर पहुंचने का दावा करने वाली साबित नहीं हुई है.
मिसाल के लिए उन्नीसवीं और बीसवीं सदी तक वैज्ञानिक यही मानते थे कि बच्चों को जज़्बाती तकलीफ़ नहीं होती. क्योंकि उनका ज़हन इतना विकसित नहीं होता कि वो इसे महसूस कर सकें.
जबकि मॉडर्न रिसर्च बताती हैं कि बच्चे बहुत समझदार, संवेदनशील और भावुक होते हैं.
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बच्चों के सोचने का न्यूरल कनेक्शन
रिसर्च के अनुसार बच्चे के दिमाग में हर सेकेंड में दस लाख से भी ज़्यादा नए न्यूरल कनेक्शन बनते रहते हैं. यानी बच्चे का दिमाग़ हर समय व्यस्त रहता है. लेकिन व्यस्त दिमाग़ का ये हिस्सा छिपा रहता है. बच्चे के दिमाग़ के काम का तरीक़ा फ़िलॉसफ़ी और साइंस का मिक्सचर है.
साल 2000 की शुरुआत में बच्चों की आंख की पुतली घूमने पर रिसर्च की गई. इस रिसर्च से पता चला कि बच्चों का दिमाग़ समझने के लिए अभी बहुत काम करना बाकी है. उनकी सोच आसनी से नहीं समझी जा सकती.
बच्चे जिस वक्त ख़ामोशी से कोई बात सुन रहे होते हैं, उस वक़्त भी उनका दिमाग़ लगातार काम करता रहता है. खास तौर से कान के पीछे वाला हिस्सा उस समय सबसे ज़्यादा सक्रिय हो जाता है. दिमाग के इस हिस्से को 'सोशल ब्रेन' कहते हैं.
वयस्कों में दिमाग़ के इस हिस्से पर सबसे ज़्यादा रिसर्च की गई है लेकिन बच्चों को लेकर वैज्ञानिकों को अभी कामयाबी नहीं मिली है.
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रिसर्च से मां-बाप का रोल कम हो जाएगा?
रिसर्चर ये जानने का भी प्रयास कर रहे हैं कि हर बच्चे में दिमाग़ का विकास एक जैसा क्यों नहीं होता. अपने माहौल से वो कौन सी चीज़ें सबसे पहले सीखते हैं. वो ये कैसे तय करते हैं कि कौन सी चीज़ उन्हें कब और क्यों ज़ाहिर करनी है.
जानकार कहते हैं कि बच्चे अपने आस-पास के माहौल से सबसे ज़्यादा सीखते हैं. लेकिन उनके आसपास के लोग कब कैसा व्यवहार करेंगे कहना मुश्किल है. इससे बच्चों के सीखने के अमल पर भी बुरा असर पड़ता है.
रिसर्चर अपनी रिसर्च के दौरान बच्चों के मां-बाप को बहुत सी हिदायतें देते हैं. पर, उससे भी बहुत मदद नहीं मिल पाती. इसीलिए ऐसी तकनीक और उपकरण बनाने पर काम चल रहा है जिसकी मदद से रिसर्च में आसानी हो और बच्चे पर की जा रही रिसर्च में मां-बाप का रोल कमतर हो जाए.
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चार से छह महीने तक ऑटिज़्म का डर
रिसर्च बताती हैं कि पैदा होने के एक दिन बाद ही बच्चे का सोशल दिमाग काम करना शुरू कर देता है. और चार से छह महीने के बच्चे में ऑटिज़्म की बीमारी होने डर ज़्यादा होता है.
हालांकि जब तक बच्चे दो या तीन साल के नहीं हो जाते, कह पाना मुश्किल होता है कि वो ऑटिज़्म का शिकार हैं या नहीं. क्योंकि इस उम्र के बाद ही उनके बर्ताव से इशारे मिलने शुरू होते हैं कि वो दूसरे बच्चों से अलग क्यों हैं.
बच्चों का दिमाग समझने के लिए एमआरआई स्कैनर का भी सहारा लिया जाता है. लेकिन एनआईआरएस ज़्यादा बेहतर और सस्ती तकनीक है. सस्ती होने की वजह से ग़रीब देशों में भी रिसर्च के लिए इस तकनीक का सहारा लिया जा सकता है.
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रिसर्च की वर्तमान स्थिति क्या है?
एनआईआरएस उपकरण के ज़रिए अफ्रीका के गैम्बिया जैसे देशों ने भी इस क्षेत्र में रिसर्च शुरू कर दी है. ज़्यादा देशों में रिसर्च होने की वजह से नतीजे भी बेहतर हो सकते हैं और बड़े पैमाने पर रिसर्च की जा सकती है.
एनआईआरएस उपकरण बनने से पहले रिसर्च का दायरा बहुत सीमित था क्योंकि हरेक देश रिसर्च का ख़र्च नहीं उठा सकता.
बच्चों में होने वाला कुपोषण भी अब रिसर्च का हिस्सा बन चुका है. एनआईआरएस से होने वाली रिसर्च से ही पता चला है कि गैम्बिया के बच्चों के दिमाग का विकास कम और धीमी गति से हो रहा है. क्योंकि, इस देश में बच्चे बहुत बुरी तरह कुपोषण का शिकार हैं.
तसल्लीबख़्श नतीजे हासिल करने के लिए अब रिसर्चर टॉडलर लैब बनाने की बात कर रहे हैं. इस में वर्चुअल रियलिटी केव होंगी. उम्मीद की जा रही है इस वर्चुअल लैब से बेहतर नतीजे सामने आएंगे. और हम बच्चों के बारे में अपनी समझ बेहतर कर सकेंगे.
Explanation:
kya ke bachha ki lagta ha ki maa ab is Ka Lia eak boaj ban hi ha