जब बच्चे मिठाई खरीद रहे थे तब हिम्मत क्या सोच रहा था
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आप तो जानते ही होंगे. . . पुलिस की नौकरी . . . .। क्या-क्या देखने में आता है। बात उन दिनों की है, जब उस शहर में मेंरी पहली पोस्टिंग हुई थी। पोस्टिंग को ज़्यादा दिन नहीं हुये थे। अभी तो मैंने शहर को ठीक से जाना-समझा भी नहीं था। हालांकि बाहर से सारे शहर एक जैसे ही नज़र आते है। कुछेक चमचमाती चौड़ी सड़कें और उन सड़कों के दोनों ओर जगमगाती दुकानें और शोरूम जहां पैसे वाले लोग तफ़रीह के लिये आते और अपनी बेदर्दी की दौलत को बेदर्दी से ख़र्च करते हैं। फिर इन ही दुकानों में होटल और रेस्टोरेंट भी होते हैं; और ये भी बेशक उन्हीं के लिए होते हैं। हम भारतीय लोग इन ही चहल-पहल वाली सड़कों और दुकानों को देखकर ही गर्व करने लगते हैं, कि हमने कितना विकास कर लिया है। शायद हम लोग विकास का मतलब ही नहीं जानते। अभी तो हम यह भी नहीं जानते की विकसित कौम कैसी होती है और क्योंकर विकसित हो पाती हैं। खैर! यह मेरी बात का विषय है भी नहीं। वह तो बात चल पड़ी तो बात में बात निकल गई। तो उन दिनों मैं इस शहर में नया ही था। वह दीवाली का दिन था। माफ़ कीजिए दिन नहीं रात थी। आप तो जानते ही हैं. . . . पुलिस की नौकरी . . . . पता ही नहीं चला, रात आधी के करीब थी। घर पहुँचना था। घर पर सब लोग इंतज़ार में होंगे। बिटिया से वादा किया था, जल्दी आऊंगा और ढेर सारी मिठाई लेकर आऊंगा। अब तक तो शायद पटाके फोड़कर सो चुकी होगी। अभी छोटी-सी तो है; सिर्फ़ दस साल की। वैसे ईश्वर की कृपा से एक बेटा भी है और वह भी बारह साल का। लेकिन साहब, बेटी तो बेटी होती है न? लेकिन अब किया भी क्या जा सकता है, पुलिस की नौकरी है. . . .। देर तो हो चुकी थी। सोचा चलो! कम-अस-कम, मिठाई तो लेता चलूँ। रास्ते मेंं एक मिठाई की दुकान पड़ती थी। जीप दूर ही रूकवा दी और दुकान के अंदर चला गया। दीवाली की वजह से दुकान देर तक खुली रही थी और अब दुकान बंद हो रही थी। बस सामान समेंटा जा रहा था। मैं भी सिविल ड्रेस मेंं ही था। दोनों हवलदार ड्रेस में थे जिन्हें मैंने जीप में ही रोक दिया था। अभी मैं मिठाई ले ही रहा था कि अपने सिर के ऊपर से चीखने की दबी-दबी सी आवाज़ आई। मैंने पूछा "यह आवाज़ कैसी?" "व् व् वो सेठ टी वी