Hindi, asked by rajat27, 1 year ago

जगह जगह बिखरे कूड़े के ढेर और फैली बीमारियां , इस विषय पर एक अनुच्छेद लिखिए।

Answers

Answered by mahaveertoshniwal
3
प्रकृति का मौलिक गुण


गांधी जी सभी रचनात्मक कामों में सफाई को महत्वपूर्ण स्थान देते रहे हैं। वस्तुतः सफाई प्रकृति का एक मौलिक गुण है। प्रकृति आप-से-आप गन्दगी नष्ट कर देती है। प्रत्येक प्राणी को सफाई का बोध रहता है। कहते हैं कि बिल्ली भी बैठते समय पूँछ से जमीन साफ कर लेती है। सृष्टि के सभी प्राणियों में मनुष्य सर्वोच्च प्राणी समझा जाता है। अतः मनुष्य में सफाई का स्तर सबसे ऊँचा होना चाहिए। यही कारण है कि वह ‘साफ-सुथरे’ शब्द का इस्तेमाल जिंदगी के हर पहलू में किया करता है। प्रत्येक मनुष्य, फिर चाहे किसी पेशे का हो, किसी-न-किसी रूप में अपने घर-द्वार की सफाई किया करता है। घर के बाहर, समाज में अथवा दूसरों से मिलने के लिए साफ कपड़े पहनकर जाने के पीछे सफाई सम्बन्धी एक सामाजिक प्रतिष्ठा छिपी है। दूसरों के सामने अपनी गन्दगी जाहिर होने में आदमी शर्म का अनुभव करने लगता है। इससे प्रकट होता है कि मनुष्य-समाज में गन्दगी के प्रति स्वाभाविक घृणा है।

जब सफाई प्रकृति का इस प्रकार मौलिक गुण है, तो हमारे लिए उसका सही-सही परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। खास तौर पर शिक्षा और सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए इस विषय में वैज्ञानिक विवेचन की आवश्यकता है। आजकल सफाई का मतलब बड़े संकुचित दायरे में लिया जाता है। घर-द्वार साफ कर कूड़ा बाहर फेंक देना, कपड़े साफ रखना, सामान तरतीब से रख देना आदि सफाई की हद समझी जाती है। सफाई के जितने साहित्य (साधन) हैं, वे भी सफाई को स्वास्थ्य और सभ्यता की श्रेणी में ही सीमित रखते हैं। किन्तु वर्तमान वैज्ञानिक और आर्थिक युग में इस विषय को कुछ और भी गहराई से देखना होगा। हमें यह समझना होगा कि मनुष्य के व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में सफाई का आर्थिक, सामाजिक और नैतिक दृष्टि से क्या स्थान है। वस्तुतः सफाई का क्षेत्र किसी एक स्थान में सीमित नहीं है और न इसकी कोई एक ही दिशा है। उसे किसी हिस्से में भी बाँटा नहीं जा सकता है। क्योंकि समाज के सर्वांगीण जीवन का यह एक मुख्य अंग है। अर्थात् यह पूर्ण विज्ञान, सम्पूर्ण उद्योग और बुनियादी कला है तथा शरीर, मन और नैतिक विकास का मौलिक साधन है।

सामाजिक जीवन का मूल उद्योग


अब हम इस पर विचार करें कि सफाई एक मौलिक कला है। सच तो यह है कि मनुष्य की स्वाभाविक सौन्दर्य-वृत्ति के कारण ही उसमें सफाई की प्रवृत्ति पैदा होती है और कला की उत्पत्ति भी मनुष्य की सौन्दर्योपासना का परिणाम है। लेकिन मनुष्य-समाज की अन्य प्रवृत्तियाँ जैसे-जैसे जटिल बनती जाती हैं, वैसे-वैसे कला की धारणा में भी परिवर्तन होता रहता है।

मनुष्य की मूल प्रवृत्ति आत्मरक्षा है, इसलिए उसकी चेष्टा अपनी जान बचाने के साधन एकत्र करने की है। अन्न और वस्त्र जीवन-यापन के मुख्य साधन है। यही कारण है कि हम कृषि और कताई को मूल उद्योग मानते हैं। किन्तु मनुष्य की जिंदगी व्यक्तिगत ही नहीं है। उसकी सामाजिक जिंदगी भी है। उसे अपनी व्यक्तिगत रक्षा के लिए सामाजिक रक्षा की आवश्यकता पड़ती है। सफाई का समाज में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। इसके बिना समाज टिक नहीं सकता। अतः जिस प्रकार व्यक्तिगत जिंदगी के लिए कृषि और कताई को मूल उद्योग माना गया है, उसी प्रकार सफाई को सामाजिक जिंदगी का मूल उद्योग मानना पड़ेगा।

उद्योग की प्रक्रियाओं का परिणाम है, आर्थिक उत्पादन। जिसे कूड़ा-करकट समझकर फेंक दिया जाता है, उसकी यदि व्यवस्था वैज्ञानिक ढंग से की जाय, तो आसानी से उसे उत्पादन का जरिया बना सकते हैं। साधारणतः गन्दगी दूर करने का अर्थ कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटा देना समझा जाता है। सचमुच इसे सफाई नहीं कहते। इसे तो गन्दगी का स्थानान्तरण ही कहा जा सकता है।

जहाँ-तहाँ कागज के टुकड़े पड़े रहना, खर-पतवार का यत्र-तत्र बिखरे रहना, कमरे के सामान का धूल से भरा रहना और लकड़ी, ईंट, खपरैल आदि के टुकड़े जहाँ-तहाँ बिखरे रहना इत्यादि बातों को लोग गन्दगी समझते हैं और उसी को कूड़ा कहते हैं। तो क्या कागज के टुकड़े, खर-पतवार, लकड़ी के टुकड़े, धूल, मिट्टी आदि जहाँ कहीं भी हों, उन्हें कूड़ा समझकर कहीं-न-कहीं फेंक देना चाहिए? इस तरह कूड़ों को स्थानान्तरित करने से ही सफाई नहीं होती। हमने देखा है कि खिलौना बनानेवाले, कागज और कपड़े के चिथड़ों को सँभालकर सुरक्षित रखते हैं, ईंधन बेचनेवाले भी लकड़ी के टुकड़े संचित करते हैं और बेचकर पैसे पैदा करते हैं। रही बात धूल की। धूल से तो सारी पृथ्वी ही बनी है। इससे भागकर हम कहाँ जायँगे? इन बातों को मतलब यह नहीं है कि ये चीजें हटायी न जायँ और वैसे ही जहाँ की तहाँ पड़ी रहें। सच बात तो यह है कि जो कागज का टुकड़ा रास्ते में आँखों को खटकता है और गन्दगी का कारण बनता है, वही टुकड़ा यदि अपने उपयुक्त स्थान पर पहुँच जाय, तो सम्पत्ति का साधन बन सकता है। अनुपयुक्त स्थान पर महान पण्डित भी एक प्रकार का कूड़ा ही है और उपयुक्त स्थान पर छोटी-से-छोटी साधारण वस्तु भी राष्ट्र की सम्पत्ति समझी जाती है।

सफाई का अर्थ है- स्थानच्युत वस्तुओं को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करना, अर्थात् कूड़े-करकट को सम्पत्ति में परिणत करना।
Similar questions