Jaha chah hai vahi raah hai Par essay .
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जहां चाह होती है. वहां राह अवश्य बनने लगती है. राह बनाने की प्रक्रिया हमारी चाह के उपर निर्भर होती है कि वह कितनी बलबती है. हमारी चाह जितनी प्रबल होगी हमारी राह उतनी आसानी से बनने लगेगी, क्योकि इसमें मन, तन,व धन से स्वतः पांचो इन्द्रियाँ काम करने लगती हैं राह को सरल व सर्वोच्च बनाने के लिए ज्ञान आवश्यक होता है जो शिक्षा से मिलता है. परंतु भारत में अब चाह दूसरो के द्वारा उत्पन्न की जाती है हर माता पिता अपनी संतानों को अपनी चाह के अनुसार ढालने का प्रयास करते हैं जब इस चाह के अनुसार सन्तान अपनी शिक्षा ग्रहण करते हैं तब इस चाह को छद्म चाह भी कह सकते हैं और इन छद्म चाहों की कभी राह नही बनती है जो बनती वे सब एक तरह की मृगचारिका होती है जिनमे चाह दूर ही दूर दिखाई देती है तब उसको प्राप्त करने के लिए अत्यंत परिश्रम करना पड़ता है यह परिश्रम उस समय और कष्टदायी हो जाता है जब शिक्षा का माध्यम उसकी भाषा का ना होकर किसी अन्य भाषा का हो अर्थात अन्य की चाह को अन्य की भाषा में अपनी राह बनाना. ऐसे में क्या राह बन पाती है ? राह तो नही बन पाती है जब राह ही नही बनी तब रह जाती है बाँझ चाह जो ढूढती है जीवन के असितत्व के लिए धन, जिसके लिए मन तन व धन तीनो को ही खोया है और मन मस्तिष्क जुड़ने वाली शिक्षा की राह चाह को जोड़ देती है पेट से.इन सब को आमिर ख़ान की थ्री इडियट व तारे जमीन पर जैसी फिल्म में देख सकते हैं.
उज्जवल भविष्य के लिए दूसरो की थोपी गयी चाहेया स्वय के अनिर्णय की दशा मे जो राहे बनती हैं वे कभी सुखद नही होती है और अंत तक सुप्त चाह जागृत होकर अपनी राह स्वय बनाने लगती है इस प्रकार के उदाहारणो में उन व्यक्तियो को देख सकते है जिन्होने अपने शिक्षा ,उससे प्राप्त ज्ञान को छोड़कर अपनी चाह के अनुसार जब राह बनाई तब उसमे अपने मन माफिक सफलता पाई जैसे चेतन भगत, पारयिकर, केजरीवाल… जैसे अनेक व्यक्ति हैं तब एक प्रश्न उठता है जब इन्होने अपना सर्वस्य खोकर अपनी चाह के अनुसार अपनी राह बनाई तब वह शिक्षा, श्रम, देश का होता उस पर व्यय क्या सब एक आडंबर है. इससे पहले क्या भारत में उच्च ज्ञान जहां चाह वहां राह के अनुसार ही बिना आडंबर के विकसित हुआ होगा.
वर्तमान की शिक्षा का मात्र जहाँ 10% अंश ही व्यवहार मे आता है वही उच्च शिक्षा प्राप्त मात्र 10% ही अपनी चाहत को पूरा करवाते है वह भी मात्र पेट भरने की चाह. इसके अलावा यदि शोध व सर्वे किया जाए तब मात्र 10 वी पास, पर प्रबल चाह वाले अपनी राह सफलता पूर्वक बना लेते है और दूसरो की चाहो के अनुसार , उनसे अधिक शिक्षित वाले उनके यहाँ शासित या कर्मचारी के रूप में कार्य करते हैं. तब इन सब को देख कर यही कहा जा सकता है जो अपनी चाह के अनुसार ही तन मन व धन से कार्य करते है उनके लिए जहाँ चाह वहां राह है , शेष के लिए रह जाते सपन.
उज्जवल भविष्य के लिए दूसरो की थोपी गयी चाहेया स्वय के अनिर्णय की दशा मे जो राहे बनती हैं वे कभी सुखद नही होती है और अंत तक सुप्त चाह जागृत होकर अपनी राह स्वय बनाने लगती है इस प्रकार के उदाहारणो में उन व्यक्तियो को देख सकते है जिन्होने अपने शिक्षा ,उससे प्राप्त ज्ञान को छोड़कर अपनी चाह के अनुसार जब राह बनाई तब उसमे अपने मन माफिक सफलता पाई जैसे चेतन भगत, पारयिकर, केजरीवाल… जैसे अनेक व्यक्ति हैं तब एक प्रश्न उठता है जब इन्होने अपना सर्वस्य खोकर अपनी चाह के अनुसार अपनी राह बनाई तब वह शिक्षा, श्रम, देश का होता उस पर व्यय क्या सब एक आडंबर है. इससे पहले क्या भारत में उच्च ज्ञान जहां चाह वहां राह के अनुसार ही बिना आडंबर के विकसित हुआ होगा.
वर्तमान की शिक्षा का मात्र जहाँ 10% अंश ही व्यवहार मे आता है वही उच्च शिक्षा प्राप्त मात्र 10% ही अपनी चाहत को पूरा करवाते है वह भी मात्र पेट भरने की चाह. इसके अलावा यदि शोध व सर्वे किया जाए तब मात्र 10 वी पास, पर प्रबल चाह वाले अपनी राह सफलता पूर्वक बना लेते है और दूसरो की चाहो के अनुसार , उनसे अधिक शिक्षित वाले उनके यहाँ शासित या कर्मचारी के रूप में कार्य करते हैं. तब इन सब को देख कर यही कहा जा सकता है जो अपनी चाह के अनुसार ही तन मन व धन से कार्य करते है उनके लिए जहाँ चाह वहां राह है , शेष के लिए रह जाते सपन.
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