जहां कोयल एवं कौआ पंडित एवं मूर्ख और इन्द्रायन एवं अनार समान मिना जाएं वहाँ क्या नही होता है
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Explanation:
कवियों ने कोयल का बड़ा गुणगान किया है। किसी के लिए वह भोर की संवाहक है, तो किसी के लिए पूजा की रीत। उसकी सुबह की तान मनोहारी है। मगर आपदा में युद्धरत होने पर यही माधुर्य उसके स्वर से यूं तिरोहित होता है, जैसे कैमिकल के दूध से बने कलाकंद का स्वाद। हमें यकीन है कि अन्य पंछियों के कलरव का भी भोर को संगीतमय बनाने में उतना ही योगदान है, जितना कोयल का। अंतर सिर्फ यही है कि कोयल का प्रचार तंत्र अधिक प्रभावी है।
कोयल चालाक है, शोषण में उसका मुकाबला नहीं है। वह कपट की कला में माहिर है। तभी तो वह कौओं के यहां पलकर बड़ी होती है। उनसे प्यार जताकर प्रतीक्षारत है। जैसे ही उसे उड़ान की अपनी क्षमता का आभास होता है, वह उन्हें धता बताकर फुर्र हो लेती है। बूढ़े और अनुभवी कौए आपस में शिकायत भी करते हैं- ‘कितना इंसानी स्वभाव है कोयल का। नहीं तो, इतनी स्वार्थी भला कैसे होती कि जिसने पाला, वह उसी को छले?’ यह उसकी धोखे और धुप्पल से रची छवि का कमाल है।
कौआ व्यर्थ ही उपेक्षा का शिकार है। वह स्पष्टवादी है। कभी मुंडेर पर बैठकर मेहमान के आगमन की सूचना देता था। बहुमंजिली घरों में मुंडेर कहां? पूर्व सूचना आज अधिक उपयोगी होती, मेजबान के घर से फरार होने में। उपयोगहीन कौआ केवल कांव-कांव के लिए बदनाम है। कर्ण-कटु खरी-खोटी किसी को कैसे बर्दाश्त हो, जब कान कोयल की चापलूस तान के आदी हो चुके हैं?
पर कौआ वाकई उदार है। कोयल के धोखे को लेकर उसकी सार्वजनिक खामोशी इसी तथ्य की गवाह है। कहना कठिन है कि यदि वह पोल खोलने को कटिबद्ध होता, तो क्या कोयल को कहीं मुंह छिपाने की जगह मिलती? कामयाबी की खाल मोटी होती है। क्या पता, कोयल की भी हो? अब तो यह भी तय नहीं है कि काठ की हांडी कब तक चढ़ पाती है? अनिश्चित है कि कौए और कोयल की निर्णायक रार कौन जीतता? सवाल ओढ़ी और गढ़ी हुई छवि बनाम जमीनी वास्तविकता का है।
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