जहाँ राम तहँ मैं नहीं, मैं तहँनाहीं राम ।
दादू महल बारीक है, वै । नाहीं ठाम ।।
(bhavarth)
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आज का युग भौतिकता का युग है। इस भौतिक युग में काम, क्रोध, मद, लोभ आदि आसुरी तमोगुणों का सर्वत्रा प्राबल्य परिलक्षित हो रहा है एवं दैवी गुणों दया, करुणा, अहिंसा, प्रेम, सत्य आदि का तीव्र गति से क्षरण हो रहा है। परिणामस्वरूप भौतिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ने के कारण मानव अपनी मानसिक शान्ति खोता जा रहा है। आज विश्व का वातावरण इतना प्रदूषित हो गया है कि जिससे सर्वत्रा अशान्ति, भय, विद्वेष एवं पारस्परिक संघर्ष का ऐसा जाल फैलता जा रहा है कि इससे निस्तार का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता।
विज्ञान की विनाशकारी एवं संहारक उपलब्धियों ने विश्व को विनाश के उस अन्तिम छोर तक पहुँचा दिया है जहाँ मानवता अश्रुपात करती हुई दिखाई दे रही है। आज मानव दानव हो गया है। मानवता विलुप्त होती जा रही है। आज पाशविक शक्तियों का ताण्डव नृत्य सर्वत्रा दिखाई दे रहा है। ऐसे अशान्त एवं भयंकर वातावरण में भयाक्रान्त मानवता के परित्रााण का एक ही उपाय है-त्यागी-तपस्वी सन्त-महात्माओं की वाणी का निरन्तर स्वाध्याय एवं अनुशीलन। सन्तों एवं शास्त्राों ने मानव मन की आत्मिक शान्ति के लिए दो ही स्थानों का प्रतिपादन किया है-आर्ष ग्रन्थों, रामायण एवं श्रीमद्भगवद्गीता तथा सन्तों की अनुभव वाणी। हमारे आर्ष ग्रन्थ यथा श्रीमद्भगवद् गीता की गूढ़ रहस्यात्मकता सर्वसाधारण मनुष्य के लिए बोधगम्य नहीं है। ऐसी स्थिति में रामायण, भगवद्गीता आदि ग्रन्थों के गूढ़ रहस्यों के अपने अनुभवों को सीधी-सरल एवं सुबोध भाषा में प्रकट करने वाले सन्तों की अमृतमयी वाणी ही इस भयावह विपत्तिा से निस्तार पाने का एकमात्रा उपाय है। सन्तों की वाणी का अवलम्बन प्राप्त कर जीवनयापन वाले मानव, मानसिक शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। सन्त कबीर, रविदास, नामदेव, नानक, सूर, तुलसी, मीरा आदि महान् भक्त सन्तों की वाणी से करोड़ों लोगों ने शान्ति प्राप्त की है और अनेक लोग उस दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। इसी शृंखला में निरंजन निराकार ब्रह्म के परमोपासक ब्रह्मर्षि श्री दादू दयाल जी महाराज की अनुभव वाणी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि-
भौतिक सुखों की प्राप्ति से ही मानव मन को आत्मिक शान्ति नहीं मिलेगी जब तक हम आध्यात्मिकता का आश्रय ग्रहण नहीं करेंगे। सबसे बड़ा धर्म मानवता एवं परोपकार है। मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं। सभी सन्त एवं सद्ग्रन्थ एक स्वर से उद्धोषणा करते हैं कि-
1. अष्टादस पुराणेषु व्यास्य वचनम् द्वय।
परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्॥ -वेद व्यास
2. हरि भज साफिल जीवना परोपकार समाय।
दादू मरणा तहाँ भला जहँ पशु पंखी खाय।। -दादू दयाल
3. निर्बल को ना सताइये, जाकी मोटी आह।
मरे बैल की चाम से, लौह भस्म हो जाए॥ -कबीर
मानव-मानव एवं प्राणीमात्रा के आत्मकल्याण, सद्भावना एवं भवसागर से जीवन नैया को पार लगाने वाली कतिपय साखियों के माध्यम से सन्तप्रवर दादू दयाल दिग्भ्रमित मानव का मार्गदर्शन करते हैं-
1. तन मन निर्मल आतमा, सब काहू की होय।
दादू विषय विकार की बात न बूझे कोय॥
2. आतम भाई जीव सब, एक पेट परिवार।
दादू मूल बिचारिये, दूजा कौन गँवार॥
3. राम नाम निज औषधी, काटहि कोटि विकार।
विषम व्याधि से ऊबरे, काया कंचर सार॥
अंत में हम श्री दादू ग्रंथावली पुस्तक प्रकाशन के सद्कार्य के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आशीर्वाद प्रेषित करते हुए हमारे परमोपास्य इष्टदेव श्री दादू दयाल महाराज एवं मेरे गुरुदेव एवं पूर्वाचार्य श्री श्री 1008 श्री हरिरामजी महाराज का पुण्य स्मरण करते हुए आपके इस सद्कार्य सफलता के लिए इन महान् सन्तों से आत्मनिवेदन करता हूँ। आशा है यह ग्रन्थ न केवल विद्वानों एवं मनीषियों के लिए अपितु दादू समाज, दादू सेवक वर्ग तथा मानव मात्रा के आत्मकल्याण की दृष्टि से अनुपम ग्रन्थ सिध्द होगा।
पुनश्च एक बार आप सभी बन्धुओं आप परिजनों के सुख-शान्ति, सुस्वास्थ्य, यश, वैभव एवं शान्ति की मंगलकामना करते हुए मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ। हरि ¬ तत् सत्! हरि ¬ तत् सत्!! हरि ¬ तत सत्!!!
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