jaishankar prasad ki kavita pratham yovan madeira se mat prem karne ki thi prvah ka bhav and vises
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यहां हम उनके काव्य ‘आंसू’ से एक अंश पढ़वा रहे हैं, पढ़िए :
प्रतिमा में सजीवता-सी
बस गई सुछवि आंखों में
थी एक लकीर हृदय में
जो अलग रही लाखों में
माना कि रूप सीमा है
सुंदर! तब चिर यौवन में
पर समा गए थे, मेरे
मन के निस्सीम गगन में
लावण्य शैल राई-सा
जिस पर वारी बलिहारी
उस कमनीयता कला की
सुषमा थी प्यारी-प्यारी
बांधा था विधु को किसने
इन काली जंजीरों से
मणि वाले फणियों का मुख
क्यों भरा हुआ हीरों से?
काली आंखों में कितनी
यौवन के मद की लाली
मानिक मदिरा से भर दी
किसने नीलम की प्याली?
तिर रही अतृप्ति जलधि में
नीलम की नाव निराली
कालापानी वेला-सी
हैं अंजन रेखा काली
अंकित कर क्षितिज पटी को
तूलिका बरौनी तेरी
कितने घायल हृदयों की
बन जाती चतुर चितेरी
कोमल कपोल पाली में
सीधी सादी स्मित रेखा
जानेगा वही कुटिलता
जिसमें भौं में बल देखा
विद्रुम सीपी सम्पुट में
मोती के दाने कैसे
हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यों
चुगने की मुद्रा ऐसे?
विकसित सरसित वन-वैभव
मधु-ऊषा के अंचल में
उपहास करावे अपना
जो हंसी देख ले पल में!
मुख-कमल समीप सजे थे
दो किसलय से पुरइन के
जलबिंदु सदृश ठहरे कब
उन कानों में दुख किनके?
थी किस अनंग के धनु की
वह शिथिल शिंजिनी दुहरी
अलबेली बाहुलता या
तनु छवि सर की नव लहरी?
चंचला स्नान कर आवे
चंद्रिका पर्व में जैसी
उस पावन तन की शोभा
आलोक मधुर थी ऐसी!
छलना थी, तब भी मेरा
उसमें विश्वास घना था
उस माया की छाया में
कुछ सच्चा स्वयं बना था
वह रूप रूप ही केवल
या रहा हृदय भी उसमें
जड़ता की सब माया थी
चैतन्य समझ कर मुझमें
मेरे जीवन की उलझन
बिखरी थी उनकी अलकें
पी ली मधु मदिरा किसने
थी बंद हमारी पलकें
ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी
बस शांति विहंसती बैठी
उस बंधन में सुख बंधता
करुणा रहती थी ऐंठी
हिलते द्रुमदल कल किसलय
देती गलबांही डाली
फूलों का चुंबन, छिड़ती
मधुप की तान निराली
मुरली मुखरित होती थी
मुकुलों के अधर बिहंसते
मकरंद भार से दब कर
श्रवणों में स्वर जा बसते
परिरंभ कुंभ की मदिरा
निश्वास मलय के झोंके
मुख चंद्र चांदनी जल से
मैं उठता था मुंह धोके
थक जाती थी सुख रजनी
मुख चंद्र हृदय में होता
श्रम सीकर सदृश नखत से
अंबर पट भीगा होता
सोएगी कभी न वैसी
फिर मिलन कुंज में मेरे
चांदनी शिथिल अलसाई
सुख के सपनों से तेरे
लहरों में प्यास भरी है
है भंवर पात्र भी खाली
मानस का सब रस पी कर
लुढ़का दी तुमने प्याली
किंजल्क जाल हैं बिखरे
उड़ता पराग हैं रूखा
हैं स्नेह सरोज हमारा
विकसा, मानस में सूखा
छिप गई कहां छू कर वे
मलयज की मृदु हिलोरें
क्यों घूम गई हैं आ कर
करुणा कटाक्ष की कोरें
विस्मृति है, मादकता है
मूचर्छना भरी है मन में
कल्पना रही, सपना था
मुरली बजती निर्जन में
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