जल संवार प्रबंधन क्या है? सतत पोषणीय विकास में इसका क्या महत्व है।
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प्रस्तावना (Introduction)
यह सर्वविदित है कि अब भू-मंडल के दो तिहाई भाग पर जल एवं एक तिहाई भाग पर धरातलीय स्वरूप उपलब्ध है, किंतु प्रकृति प्राप्त उपलब्ध इस जल का लगभग 90 प्रतिशत भाग संप्रति प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के काम नहीं आता है। कुल उपलब्ध जल का 97.2 प्रतिशत भाग समुद्रों में खारे पानी के रूप में विद्यमान है, तो 22 प्रतिशत जल उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा पड़ा है। लगभग 1 प्रतिशत से भी कम शेष बचा यह जल, जो प्रकृति में संचरित हो रहा है, मनुष्य के काम आता है। तीव्रगति से बढ़ रही जनसंख्या एवं उसकी भौतिक आवश्यकताओं की आपूर्ति हेतु प्रकृति में उपलब्ध यह 1 प्रतिशत से भी कम जल दिन-प्रतिदिन आनुपातिक रूप से कम होकर प्रति व्यक्ति उसकी उपलब्धता घटती जा रही है और आने वाली सदी में इस मात्रा में और भी कमी आने की सम्भावना है। अतः जलाभाव में किसी भी प्रदेश के भूमि एवं मानव संसाधनों की पोषणीयता की कल्पना नहीं की जा सकती है।
राजस्थान में हर जगह भूजल स्तर में एक से तीन मीटर प्रतिवर्ष की दर से गिरावट आ रही है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड की त्रिवार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ है कि राजस्थान में वर्ष 1996-1998 के बीच भूजल के पुनर्भरण के मुकाबले, भूजल के दोहन की दर 10 प्रतिशत बढ़ गई है। प्रदेश का जल संकट बढ़ती जनसंख्या की खाद्यान्न पूर्ति एवं विकास के नाम पर शुरू की गई हरित क्रांति के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है। 1970 के उपरांत भूमिगत जलस्रोतों का जिस तीव्र गति से प्रत्येक हेक्टेयर में कुआँ खोद कर भीमकाय मशीनों से दोहन किया गया है, वह निश्चय ही दर्दनाक एवं अवैज्ञानिक घटना रही है, दूसरी ओर जिस गति से भूजल दोहन किया गया है, वह उस अनुपात में उसका वर्षाजल द्वारा पुनर्भरण नहीं हो, पाया, क्योंकि पर्यावरण में गिरावट के फलस्वरूप प्रदेश में वर्षा की मात्रा एवं वर्षा के दिनों की संख्या दोनों में ही निरंतर कमी आती जा रही है।
साथ ही वनावरण के अभाव में वर्षाजल भूमि पर आते ही बहकर या वाष्पित होकर नष्ट हो जाता है जबकि पूर्व में भूजल का पुनर्भरण वृक्षों की जड़ों से अवरुद्ध होकर कहीं अधिक होता था। धरातल पर वृक्षों की सूखी पत्तियों एवं टहनियों का ऐसा स्पंज बनता था जिससे मिट्टी में जल धारण करने की क्षमता बढ़ जाती थी, जबकि संप्रति वन विनाश के कारण ऐसा संभव नहीं रहा है। राज्य का 50 प्रतिशत भाग भूजल संसाधनों की दृष्टि से अंधकारमय (डार्क जोन) व अतिदोहन (ओवर एक्सप्लोइटेशन) का शिकार हो चुका है, क्योंकि प्रदेश में जल विदोहन भूजल पुनर्भरण की अपेक्षा अधिक रहा है। प्रदेश के भूजल भंडार के विकास के स्तर को ज्ञात करने के लिये निम्नलिखित सर्वमान्य सूत्र को प्रयुक्त किया गया है-
भूजल विकास का स्तर = शुद्ध वार्षिक भूजल उपयोग x 100 सिंचाई के लिये उपलब्ध शुद्ध भूजल भंडार
सिंचाई के लिये उपलब्ध शुद्ध भूजल भंडार का मान, सकल (वार्षिक) भूजल भंडार का 85 प्रतिशत होता है। भूजल विकास की दर ज्ञात करने के लिये पिछले 5-10 वर्षों में भूजल के उपयोग की सकल वृद्धि का औसत मान ज्ञात किया जाता है, इस औसत को भूजल विकास की दर कहते हैं।
भूजल विकास का स्तर ज्ञात होने से भविष्य के लिये भूजल विकास की संभावनाओं की मात्रा एवं दिशा ज्ञात की जा सकती है। भूजल के अतिदोहन (ओवर ओवर एक्सप्लोइटेशन) की स्थिति से बचने के लिये भूजल विकास कोष के दोहन स्तर के आधार पर निम्नलिखित चार वर्गों में बांटा गया है-
Explanation:
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जल संवार प्रबंधन है:
जल संवार प्रबंधन का अर्थ है बारिश के पानी का संचयन करना और उसका पुन: उपयोग करना, न कि उसे बहने देना। जल संवार प्रबंधन को वर्षा जल प्रबंधन भी कहा जाता है।
जल संवार प्रबंधन का महत्त्व:
- यह भूजल स्तर को रिचार्ज करता है।
- मिट्टी की उर्वरता को बहाल करता है और मिट्टी के संरक्षण में मदद करता है
- पीने और अन्य मानवीय उद्देश्यों के लिए पानी को पुनर्स्थापित करता है।
- यह जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद करता है और स्थायी कृषि को बढ़ावा देता है।
- एक क्षेत्र की जैव विविधता की रक्षा करता है, अगर ठीक से प्रबंधित किया जाए तो जैव विविधता को बहाल किया जा सकता है।
विश्व की अधिकांश जल समस्याएँ जैसे बाढ़, सूखा, पानी की कमी, जल प्रदूषण, ऊष्मा द्वीप सभी वर्षा जल से संबंधित हैं। उचित वर्षा जल प्रबंधन द्वारा, हम ऐसी समस्याओं के जोखिम को कम कर सकते हैं और लचीलापन बढ़ा सकते हैं। वर्षा जल संचयन द्वारा पेयजल के लिए एसडीजी को हल करने के लिए तकनीकी, आर्थिक और सामाजिक पहलुओं में नवाचार आवश्यक हैं।
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