Hindi, asked by msurwase119, 1 month ago

जलवायु परिवर्तन एवं badhte tapman Ke Karan Himalaya aur nadiyan पर होने वाले प्रभाव पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए चित्र सहित प्रस्तुति In Ⓜinimum 2 page pl2zzzzzzzz ​

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Answered by Parinisharma
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Explanation:

"विकास के नाम पर हो रही मानवीय गतिविधियों और हिमालयी जैव-संपदा के संरक्षण के बीच संतुलन की आवश्यकता बढ़ रही है। इसीलिए, हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र पर विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों के समग्र प्रभाव का आकलन बेहद जरूरी हो गया है।"

राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के अध्यक्ष डॉ वी.बी. माथुर ने ये बातें कही हैं। वह हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में स्थित सीएसआईआर-हिमालय जैव-संपदा प्रौद्योगिकी संस्थान (आईएचबीटी) द्वारा आयोजित एक ऑनलाइन कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि हिमालय क्षेत्र में टिकाऊ विकास और सामाजिक उत्थान के लिए बर्फ, नदियों और जंगलों का संरक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इस मौके पर उत्तराखंड के श्रीनगर में स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति प्रोफेसर एस.पी. सिंह ने भी वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन से हिमालय क्षेत्र के तापमान में वृद्धि, वर्षा के पैटर्न में बदलाव और कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में बढ़ोतरी जैसी घटनाएं देखी जा रही हैं।

प्रोफेसर सिंह ने कहा कि मैदानी क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाला प्रदूषण; जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के साथ मिलकर हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है। इस कारण हिमालय क्षेत्रों में अनियमित बर्फबारी, दिन एवं रात के तापमान में वृद्धि और ग्लेशियरों के सिकुड़ने के मामले गंभीर रूप से उभर रहे हैं।

मैदानी क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाला प्रदूषण; जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के साथ मिलकर हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है। इस कारण हिमालय क्षेत्रों में अनियमित बर्फबारी, दिन एवं रात के तापमान में वृद्धि और ग्लेशियरों के सिकुड़ने के मामले गंभीर रूप से उभर रहे हैं।

प्रोफेसर सिंह ने कहा कि “ये कारक न केवल हिमालयी पौधों की प्रजातियों के पुनर्जनन को प्रभावित करते हैं, बल्कि ऊंचाई वाले क्षेत्रों में वृक्ष-रेखा और टिम्बर-लाइन के अचानक बदलाव का कारण भी बनते हैं।” वृक्ष-रेखा या ट्री-लाइन, किसी पर्यावास की वह सीमा होती है जहाँ तक वृक्ष उग पाने में सक्षम होते हैं। जबकि, टिम्बर-लाइन या वृक्ष-विकास रेखा उस भौगोलिक सीमा को कहते हैं, जिसके आगे पेड़ नहीं उग सकते।

प्रोफेसर सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि हिमालयी और गैर-हिमालयी क्षेत्रों में विभिन्न अनुसंधान संस्थानों के बीच सहयोग और स्थानीय लोगों के इनपुट से हिमालयी जैव-संपदा के संरक्षण के लिए एक प्रभावी कार्ययोजना तैयार करना महत्वपूर्ण हो सकता है।

सीएसआईआर-आईएचबीटी के निदेशक डॉ संजय कुमार ने बताया कि “यह संस्थान हिमालय जैव-संपदा के टिकाऊ उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए निरंतर योगदान दे रहा है। सीएसआईआर-आईएचबीटी; भारतीय हिमालय क्षेत्र के केंद्रीय विश्वविद्यालयों के संघ का सदस्य है। जैव प्रौद्योगिकी विभाग की जैव-संपदा सूचना नेटवर्क पहल के अंतर्गत संस्थान को पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के पुष्प संसाधनों से संबंधित जैव-संपदा सूचना केंद्र के रूप में चिह्नित किया गया है।”

डॉ कुमार ने बताया कि सीएसआईआर-आईएचबीटी हिमालय क्षेत्र की संकटग्रस्त वृक्ष प्रजातियों के पुनरुद्धार से संबंधित परियोजना के समन्वयक के रूप में भी कार्य कर रहा है। संस्थान; पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ‘नेशनल मिशन ऑन हिमालयन स्टडीज’पहल का हिस्सा भी है।

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