जनाः कदा भ्रमित?
प्रातः
रात्रि
सांयकाले
मध्याह्नः
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प्रथम पटल। लय प्रकरण एकं ज्ञानं नित्यमाद्यंतशूल्यं नान्यत किचिद्वर्तते वस्तु सत्यम। यदभेदोऽस्मिन्निन्द्रियोंपाधिना वै ज्ञानस्यायं भासते नान्यथैव॥ अथ भक्तानुरक्तोऽहं वक्ष्ये योगानुशासनम। ईश्वरः सर्वभूतानामात्ममुक्तिप्रदायकः॥ त्यक्त्वा विवादशीलानां मतं दुर्ज्ञानहेतुकम। आत्मज्ञानाय भूतानामनन्यगतिचेतसाम॥ केवल एक ज्ञान ही नित्य और आदि अन्त से रहित है। जगत में ज्ञान से भिन्न कोई अन्य वस्तु विद्यमान नहीं है। इंद्रियों की उपाधि के द्वारा जो कुछ पृथक-पृथक प्रतीत होता है, वह केवल ज्ञान की भिन्नता के कारण ही प्रतीत होता है। भक्तों पर कृपा करने के उद्देश्य से मैंने यह योग का अनुशासन कहा है। सब भूतों की आत्मा मुक्तिदायक है। यह इस शास्त्र का लक्ष्य है जो मत विवादमय और दुर्ज्ञान के कारणरूप है, उनका त्याग करके आत्मज्ञान का आश्रय लें, यही भूतों की अनन्य गति है। सत्यं केचित प्रशसन्ति तपः शौचं तथापरे। क्षमां केचित्प्रशसन्ति तथैव सममार्ज्जवम॥ केचिददानं प्रशंसन्ति पितृकम तथापरे। केचित कर्म प्रशंसन्ति केचिद्वैराग्यमुत्तमम॥ कोई विद्वान सत्य की प्रशंसा करते हैं तो कोई तपस्या की और कोई शुद्ध आचार को ही श्रेष्ठ बताते हैं। कोई क्षमा को उचित मानते हैं तो कोई सब में समान भाव रखना ही ठीक बताते हैं। कोई सरलता का अनुमोदन करते हैं तो कोई दान की ही प्रशंसा किया करते हैं। कोई पितर कर्म (तर्पणादि) की महत्ता स्वीकार करते हैं । कोई कर्म अर्थात सगुण उपासना को ही मान्यता देते हैं। कुछों के मत में वैराग्य ही श्रेष्ठ है। केचिदगृहस्थकर्माणि प्रशंसन्ति विच्क्षणाः। अग्निहात्रादिकं कर्म तथा केचित्परं बिंदु॥ मंत्रयोग प्रशंसन्ति केचित्तीर्थानुसेवनम। एवं बहूनुपायांस्तु प्रवदन्ति विमुक्तये॥ कोई विद्वान पुरुष गृहस्थ धर्म को प्रशंसनीय कहते हैं तो कोई परमज्ञानी अग्निहोत्र आदि कर्मों को ही प्रशस्त मानते हैं। किसी के मत में मंत्र योग ही श्रेष्ठ है और किसी के विचार में तीर्थ यात्रा आदि करना या तीर्थसेवन करना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अनेकानेक विद्वानों ने संसार सागर से मुक्त होने के लिए अपनी-अपनी मति के अनुसार अनेक उपाय बताए हैं। एवं व्यवस्थिता लोके कृत्याकृत्यविदो जनाः। व्यामोहवेव गच्छतिः विमुक्ता पापकर्मभिः॥ एतन्मतावलंबी यो लब्ध्वा दुरितपुण्यके। भ्रमतीत्यवशः सोऽत्र जन्ममृत्युपरंपराम॥ इस प्रकार कृत्य और अकृत्य अर्थात विधि-निषेध कर्मों के ज्ञाता पुरुष पाप कर्मों से विमुक्त रहकर भी व्यामोह में ही पड़े रहते हैं तथा पाप-पुण्य के अनुष्ठान रूप उपयुक्त मतों के आश्रय में रहते हैं। परिणामस्वरूप अनुष्ठाता को जन्म-मरण के चक्र में बार-बार घूमते रहना होता है। इसका तात्पर्य यह है कि शुभ कर्मों के करने से चित्त की शुद्धि तो संभव है, परंतु मुक्ति मिल जाना संभव नहीं है। अन्यैर्मतिमतां श्रेष्ठैर्गु प्तालोकनततपरैः। आत्मानो बहवः प्रोक्ता नित्याः सर्वगतास्तथा।।
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