जनसंघर्ष लोकतन्त्र का विरोधी है।
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Ha.
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प्रश्न के अनुसार :
लोकतंत्र की नींव में से एक यह धारणा है कि सभी मत बराबर हैं। पर, यह सिर्फ सिद्धांतीक है- लेकिन वास्तव में यह शायद ही कभी सही होता है। हम यह मान लेते है कि सभी राय एक समान हैं, जो विश्वास की एक बड़ी छलांग है, क्योंकि हम शिक्षित और अज्ञानी, और कानून पालन करने वाले नागरिकों और कानून तोड़ने वालों की राय पर समान मूल्य डाल रहे हैं।
1 - यहां तक कि यदि आपको लगता है कि सभी लोग बराबर बनाये गये हैं, तो यह स्पष्ट है कि उनके वातावरण बहुत अलग हैं- और उनका जतन, उनका चरित्र भी अलग होता है। यह मानकर कि सभी राय बराबर हैं आप यह भी मान रहे हैं कि ज्यादातर लोग सभी सदगुण और अवगुणो को परखकर, उनकी गंभीरता से खोज करने के बाद ही एक तर्कसंगत, सूचित निर्णय तक पहुंचने में सक्षम हैं।
२). भारत के संदर्भ में : हमें ऐसा जरूर प्रतित होता है कि लोकतंत्र में कार्य संपादन की धीमी गति होती है, वोट की राजनीति की मजबुरी की वजह से राजनेताओं में बदलाव के प्रति अरुचि रहती है व यथास्थितिवाद/ तदर्थवाद हावी रहता है। (इनकी वजह है बार बार के चुनाव, सामाजिक आर्थिक विषमता, मतदाता में स्वतंत्र चिंतन का अभाव जिस वजह से वोट बैंक की राजनीति का फलना फुलना, आदि। उम्मीद है सुधार होगा)।
३). कुछ लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग करते हैं। पर इनसे निपटने की सामर्थ्य भी लोक-तंत्र में ही है।
४). लोकतंत्र में व्यवस्था संचालन एक सिस्टम के तहत होता है। व खासियत यह है कि सिस्टम पर नजर/ नियंत्रण करने की उत्तम व्यवस्था भी है, संस्थाओं के रूप में। और सबसे ऊपर है ‘जन(ता)’ जिसे इन सब को नियंत्रित करने का अधिकार प्राप्त है (मानव स्वभाव है कि वह शासन करना चाहता है, शासित नहीं होना चाहता यह सुविधा लोकतंत्र में ही संभव है)।
५). दोष : चुंकि लोकतंत्र आमजन की सामुहिक चेतना से संचालित होता है, अतः इसमें वे सभी दोष हैं जो मानव में है। अतः जो में वे सभी कमियां है उसके लिए तंत्र जिम्मेदार नहीं है। तो मेंरे हिसाब से स्थति तनावपूर्ण जरूर है, पर नियंत्रण में है। लोकतंत्र में सरकार चलाना एक बहुत बड़े संयुक्त परिवार के संचालन जैसा है। हम अपने-अपने घरों में देख सकते हैं। सभी के मुंह से यही निकलेगा “हम बदलेंगें, युग बदलेगा”।