जपा
1. महर्षि ने पाखंड खंडिनी पताका कहाँ फहराई?
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Answer:
right........................
Explanation:
"पाखण्ड खण्डिनी पताका" - यह मेरी आगामी प्रकाशित होने वाली पुस्तक का नाम है।
"पाखण्ड खण्डिनी पताका" वह पताका है जो सर्वप्रथम ईसवी सन् 1867 में जगत्गुरु महर्षि दयानन्द सरस्वती ने हरिद्वार के कुम्भ मेले के शुभावसर पर फहराई थी और जिस का मुख्य उद्देश्य 'जनता को पाखण्डों से घिरे अन्धकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में लाना' था। "आर्य समाज" के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती (1824-1883) ने अपने जीवन काल में जहाँ भी अधर्म और पाखण्ड का सामना किया, वहाँ धर्म के सही स्वरूप और सत्य का प्रचार किया और पाखण्ड (अधर्म) का खण्डन किया।
यह सत्य है कि गिरना (िफसलना) सरल है, सम्भलना समझदारी है और सम्भलना उठकर खड़े होना बहुत कठिन कार्य है। गिरने का कारण अज्ञानता है, सम्भलना पुरुषार्थ है और सम्भलकर उठना समझदारी (ज्ञान) है। मनुष्य को उन्नति के लिये ज्ञान और पुरुषार्थ दोनों की आवश्यक्ता पड़ती है। मनुष्य वही है जो अपने विवेक का प्रयोग कर, सदा उन्नति के मार्ग पर चलकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करे। मनुष्य जीवन का लक्ष्य है – परमगति अर्थात् सब प्रकार के दुःखों से निवृति प्राप्त करना और आनन्द में रहना, उसके लिये असत्य का त्याग करना तथा सत्य को जानना अत्यन्तावश्यक है। "पाखण्ड खण्िडनी पताका" उसी सत्य का मार्गदर्शक है।
धर्मप्रेमी पाठकगण इस पुस्तक के शीर्षक को पढ़ कर समझ ही गए होंगे कि इस पुस्तक को सहजता पूर्वक पढ़ना इतना आसान नहीं होगा क्योंकि सत्य का सामना करना सब के बस की बात नहीं है, बहुत कठिन कार्य है और सत्य को ग्रहण करना तलवार की तेज़ धार पर नंगे पाँव चलने के बराबर होता है। वास्तव में सत्य स्वाभाविक और सरल होता है परन्तु प्रत्यक्ष है कि अनेक लोग सत्य ग्रन्थों को पढ़ते तो हैं और अच्छी तरह से समझते भी हैं, िफर भी उनके जीवन में सत्याचरण की एक भी झलक नहीं दिखाई नहीं देती या उनके चरित्र में कोई बदलाव नहीं होता। धार्मिक ग्रथों की तो बात ही निराली है। मनुष्य यदि प्रामाणित धर्मग्रन्थों को पढ़े, समझे और जीवन में अपनाने का प्रयास करे तो उसका इह-लोक और परलोक दोनों सुधर-सँवर सकते हैं।
वर्तमान में बाज़ार में तथाकथित धर्मिक ग्रन्थों की कोई कमी नहीं है, सरे आम सड़कों पर धर्म के नाम पर अनेक पुस्तकें बिकती हैं जिनमें अशलील बातें और आपित्तजनक तस्वीरें भी होती हैं। उदाहरण के तौर पर पुराणों को ही लीजिये – जिनको प्राय: लोग धर्मिक ग्रन्थ समझते हैं – तो बताएँ हममें से कितने लोग हैं जिन्हों ने पुराणों के नाम सुने तो होंगे परन्तु क्या पढ़े हैं? इनमें से कुछ ऐसे भी पुराण हैं जिनको लोग, पढ़ना तो दूर की बात है, अपने घरों में रखना भी उचित नहीं समझते। पता है क्यों? जी हाँ। इनमें ऐसी अशलील बातें लिखी हैं कि हो सकता है कि कहीं हम वैसी हरकतें न कर बैठें और यही कारण है कि पुराणों को कोई भी अपने घरों में घुसने नहीं देता। धर्म ग्रन्थों में सब धार्मिक और ज्ञानवर्धक बातें होती हैं जिनको पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना सब लोगों का कर्तव्य ही नहीं, धर्म है।
धर्म और सम्प्रदाय में बहुत अन्तर होता है अत: आगे बढ़ने के पूर्व हमें धर्म और सम्प्रदाय या मज़हब को अच्छी तरह से समझना होगा तो ही हम पाखण्ड का खण्डन कर सकेंगे और सत्य मार्ग पर चलने का प्रयास कर सकेंगे।
Answer:
पाखण्ड खण्डिनी पताका" वह पताका है जो सर्वप्रथम ईसवी सन् 1867 में जगत्गुरु महर्षि दयानन्द सरस्वती ने हरिद्वार के कुम्भ मेले के शुभावसर पर फहराई थी और जिस का मुख्य उद्देश्य 'जनता को पाखण्डों से घिरे अन्धकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में लाना' था। ... "पाखण्ड खण्िडनी पताका" उसी सत्य का मार्गदर्शक है।Mar 4, 2020