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वररुचि की मंगनी पाटलिपुत्र की परम सुंदरी उपकोशा के साथ निश्चित हो चुकी थी, लेकिन दोनों का विवाह अभी नहीं हुआ था| उनके विवाह न होने का एक कारण था| विवाह से पूर्व वररुचि अपने आराध्य देव भगवान शिव को प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता था|
एक दिन उसने अपनी यह इच्छा अपन मंगेतर उपकोशा के समक्ष कह सुनाई| उसने कहा – “उपकोशा! मैं भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर्वत पर जा रहा हूं| मुझे लौटने में शायद विलंब हो जाए, इसलिए मैंने अपनी धन-संपत्ति हिरण्यगुप्त नामक व्यापारी के पास रखवा दी है| तुम्हें जब भी आवश्यकता पड़े, उससे मांग लेना|”
यह सुनकर उपकोशा ने कहा – “आर्यपुत्र! मेरी आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं| आपके धन की शायद ही मुझे आवश्यकता पड़े, क्योंकि मेरे पास मेरे माता-पिता का दिया हुआ धन भी यथेष्ट है, फिर भी मैं आपकी बात याद रखूंगी और यदि आवश्यकता हुई तो हिरण्यगुप्त व्यापारी के पास जाकर उससे धन मांग लूंगी|”
“तब फिर ठीक है| अब मैं चलता हूं| अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना|”
“जाइए आर्यपुत्र! मैं आपके लौटने तक अधीरता से आपकी प्रतीक्षा करूंगी|”
वररुचि हिमालय के लिए चला गया| उपकोशा अपने दैनिक कार्यों में लग गई, लेकिन अपने मंगेतर की याद उसे पल-पल सताती रही|
एक दिन उपकोशा गंगा के स्नान करने के लिए गई| जल में नहाते हुए उसे राजा के एक मंत्री ने देख लिया| उपकोशा का रूप-सौंदर्य देखकर वह उस पर मुग्ध हो गया| उसे पाने की इच्छा उसके मन में जाग्रत हो उठी| उपकोशा जब स्नान करके नदी के जल से निकली तो वह उसके समक्ष जा खड़ा हुआ| एक अजनबी को सामने पाकर उपकोशा लज्जा से दोहरी हो गई| भीगे वस्त्रों में अपना बदन छुपाने का प्रयास करते हुए उसने मंत्री से कहा – “कौन हैं आप? क्या आपको मालूम नहीं कि यह घाट महिलाओं के स्नान के लिए बनाया गया है| स्नान करना हो तो कृपया पुरुषों के स्नान करने वाले घाट पर जाइए|”
तब वह मंत्री बोला – “हे सुंदरी! धृष्टता के लिए क्षमा चाहता हूं| मैं इस राज्य का एक मंत्री हूं| तुम्हारा अप्रतिम सौंदर्य देखकर मैं स्वयं पर काबू न पा सका, इसीलिए यहां चला आया| सुंदरी! मैं तुमसे विवाह करके तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहता हूं| कृपा करके मेरा यह प्रणय-निवेदन स्वीकार कर लो|”
यह सुनकर उपकोशा उलझन में पड़ गई| वह बोली – “श्रीमंत! मैं आपका यह निवेदन स्वीकार नहीं कर सकती, क्योंकि मेरी मंगनी हो चुकी है|”
“तो क्या हुआ? मैं यह मंगनी तुड़वा दूंगा| तुम्हारा मंगेतर जितना भी धन चाहेगा, मैं उसे देकर संतुष्ट कर दूंगा| बस तुम स्वीकृति दे दो|”
उपकोशा ने उसे अनेक प्रकार से समझाया कि मेरी मंगनी टूट नहीं सकती, क्योंकि वह धर्मानुसार हुई है, लेकिन वह मंत्री अपने आग्रह पर कायम रहा| तब उपकोशा ने उसे टालने का एक उपाय सोचा| वह मंत्री से बोली – “श्रीमंत! यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है तो मैं इस पर विचार करूंगी, पर इसके लिए मुझे समय चाहिए|”
“कितना समय चाहिए, सुंदरी?” मंत्री ने उत्सुकता से पूछा|
“आप अगले सप्ताह बंसत पंचमी के दिन शाम ढले मेरे घर पर आ जाइए| मैं सोचकर आपको अपना उत्तर बता दूंगी, लेकिन याद रहे, बसंत पंचमी से पूर्व मुझसे मिलने की हरगिज भी चेष्टा मत करना, क्योंकि यदि किसी ने खुलेआम हमें मिलते देख लिया तो मेरी तो बदनामी होगी ही, आपकी प्रतिष्ठा पर भि धब्बा लग जाएगा|”
मंत्री उसके इस प्रस्ताव पर रजामंद हो गया| वह बोला – “हां, यही ठीक रहेगा| बंसत पंचमी का दिन ही हमारे लिए ठीक रहेगा| उस दिन सभी नगरवासी उत्सव मना रहे होंगे| इस कारण तुम्हारे घर में दाखिल होते हुए मुझे कोई देख नहीं सकेगा|” यह कहकर मंत्री वहां से चला गय