जर्मन एकीकरण की प्रक्रिया का संक्षेप में पता लगाएँ।
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जर्मन एकीकरण की प्रक्रिया :
जर्मनी के एकीकरण का आरंभ प्रशा के सिंहासन पर विलियम प्रथम के आसीन होने से हुआ। उसने बिस्मार्क को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। बिस्मार्क में प्रशा को सैनिक शक्ति बनाया और जर्मनी के एकीकरण की भूमिका तैयार की। जर्मनी के एकीकरण का विचार वियाना कांग्रेस के बाद ज़ोर पकड़ने लगा। वियना संधि के अनुसार जर्मनी को 30 राज्यों के ढीले ढाले संघ में बदला गया। जर्मन देश भक्तों ने इस संघ को मजबूत बनाने के अनेक प्रयास किए । 1848 की क्रांति के मध्य फ्रैंकफर्ट की संसद ने जर्मनी को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया । परंतु प्रशा के राजा के कारण यह लक्ष्य पूरा न हो सका । वास्तव में जर्मनी के एकीकरण के मार्ग में अनेक रुकावटें थी। ऑस्ट्रिया इस एकीकरण के विरुद्ध था तथा फ्रांस के लिए संयुक्त जर्मनी एक खतरा था । स्वयं अनेक जर्मन वासी भी इस एकता के विरुद्ध थे। इन सब बाधाओं को बिस्मार्क ने दूर किया । वह 1862 ईसवी में जर्मनी का प्रधानमंत्री बना । उसने जर्मनी की सैनिक शक्ति में वृद्धि की और ऑस्ट्रिया को अपना मित्र बनाया। दोनों ने मिलकर डेनमार्क से युद्ध किया और युद्ध से प्राप्त उपनिवेशों की आड़ लेकर उसने 1866 ईस्वी में ऑस्ट्रिया से युद्ध किया। जर्मनी के एकीकरण में ऑस्ट्रिया ही सबसे बड़ी बाधा थी । बिस्मार्क ने विश्व की शक्तियों को तटस्थ किया और ऑस्ट्रिया को सेडोवा में पराजित कर दिया । युद्ध के पश्चात मेन नदी के उत्तर में स्थित सभी जर्मन रियासतों को मिलाकर उत्तरी जर्मनी नामक एक राज्य संघ की स्थापना की । 1867 में इसमें मकेलनबर्ग तथा सैक्सनी को भी मिला दिया। 1871 में फ्रांस को पराजित करने के पश्चात जर्मनी के दक्षिणी राज्य बवेरिया, वाडेन, ब्यूर्टबर्ग आदि भी जर्मन साम्राज्य में सम्मिलित हो गया। प्रशा के राजा को समस्त जर्मनी का सम्राट घोषित किया गया । इस प्रकार जर्मनी यूरोप के मानचित्र में एक राष्ट्र के रूप में उभरा।
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Explanation:
इसके लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द सोशियोलॉजी लेटिन भाषा के सोसस तथा ग्रीक भाषा के लोगस दो शब्दों से मिलकर बना है जिनका अर्थ क्रमशः समाज का विज्ञान है। इस प्रकार सोशियोलॉजी शब्द का अर्थ भी समाज का विज्ञान होता है। परंतु समाज के बारे में समाजशास्त्रियों के भिन्न – भिन्न मत है इसलिए समाजशास्त्र को भी उन्होंने भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है।
अति प्राचीन काल से समाज शब्द का प्रयोग मनुष्य के समूह विशेष के लिए होता आ रहा है। जैसे भारतीय समाज , ब्राह्मण समाज , वैश्य समाज , जैन समाज , शिक्षित समाज , धनी समाज , आदि। समाज के इस व्यवहारिक पक्ष का अध्यन सभ्यता के लिए विकास के साथ-साथ प्रारंभ हो गया था। हमारे यहां के आदि ग्रंथ वेदों में मनुष्य के सामाजिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
इनमें पति के पत्नी के प्रति पत्नी के पति के प्रति , माता – पिता के पुत्र के प्रति , पुत्र के माता – पिता के प्रति , गुरु के शिष्य के प्रति , शिष्य के गुरु के प्रति , समाज में एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के प्रति , राजा का प्रजा के प्रति और प्रजा का राजा के प्रति कर्तव्यों की व्याख्या की गई है।
मनु द्वारा विरचित मनूस्मृति में कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था और उसके महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और व्यक्ति तथा व्यक्ति , व्यक्ति तथा समाज और व्यक्ति तथा राज्य सभी के एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों को निश्चित किया गया है। भारतीय समाज को व्यवस्थित करने में इसका बड़ा योगदान रहा है इसे भारतीय समाजशास्त्र का आदि ग्रंथ माना जा सकता है।