जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा ॥ सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।। बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरू नावा॥ मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥
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जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा ॥ ॉ
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरू नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥
भावार्थ ➲ जैसे-जैसे सुरसा अपने मुँह का विस्तार बढ़ाती जाती, हनुमान जी अपना आकार सुरसा के मुँह के दोगुना करते जाते, और अपना रूप विराट करते जाये। जब सुरसा ने सौ योजन यानी चार कोस दूर तक दिखने वाला अपना मुँह किया। तब अचानक हनुमान जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया और उसके मुँह में घुस गए और फिर थोड़ी देर बाहर निकल आए। हनुमान जी ने सुरका सामने उन्होंने सर झुका कर उससे विदा मांगी और कहा, मैंने तुम्हारी बुद्धि और बल का भेद पा लिया है, जिसके प्रयोजन हेतु तुम्हारे पास मुझे देवताओं ने भेजा था।
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