जसुमति मन अभिलाष करै।
कब मेरौ लाल घुटुरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै।
कब द्वै दाँत दूध के देखौं, कब तोतरै मुख बचन झरे।
कब नंदहि बाबा कहि बोले, कब जननी कहि मोहिं रै।
कब मेरौ अँचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसौं झगरे।
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै।
कब हँसि बात कहैगो मोसौं, जा छबि तैं दुख दूरि हरै।
स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आपु गई कछु काज घरै।
इहिं अंतर अंधवाह उठ्यो इक, गरजत गगन सहित घहरै।
सूरदास ब्रज-लोग सुनत धुनि, जो जहँ-तहँ सब अतिहिं डरै।
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श्रीयशोदा जी मन में अभिलाषा करती हैं -`मेरे लाल कब घुटनों के बल सरकने लगेगा । कब पृथ्वी पर वह दो पद रखेगा । कब मैं उसके दूध के दौ दाँत देखूँगी । कब उसके मुख से तोतली बोली निकलने लगेगी । कब व्रजराज को `बाबा' कहकर बुलावेगा, कब मुझे बार-बार `मैया-मैया' कहेगा । कब मोहन मेरा अञ्चल पकड़कर चाहे जो कुछ कहकर (अटपटी-माँगें करता) मुझसे झगड़ा करेगा । कब कुछ थोड़ा-थोड़ा खाने लगेगा । कब अपने हाथ से मुख में ग्रास डालेगा । कब हँसकर मुझसे बातें करेगा, जिस शोभा से दुःखका हरण कर लिया करेगा।' (इस प्रकार अभिलाषा करती माता) श्यामसुन्दर को अकेले आँगन में छोड़कर कुछ काम से स्वयं घर में चली गयी । इसी बीच मैं एक अंधड़ उठा, उसमें इतनी गर्जना हो रही थी कि पूरा आकाश घहरा रहा (गूँज रहा) था । सूरदास जी कहते हैं कि व्रज के लोग जो जहाँ थे, वहीं उस ध्वनि को सुनते ही अत्यन्त डर गये ।
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