Political Science, asked by hipraj804, 9 months ago

Jati ke rajnitikkarn ne kis parkar bhartiya rajnitik ka loktantrik kiya hai

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Answered by ᎷíssGℓαмσƦσυs
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Answer:

सामाजिक-आर्थिक एवं जातिगत जनगणना 2011 की जिस उत्सुकता से प्रतीक्षा थी उसे जारी किए गए आंकड़ों ने पूरी न की। देश को अपनी बदहाली के आंकड़ों में उतनी दिलचस्पी न थी जितनी सरकार को। लोग यह जानने को ज्यादा उत्सुक थे कि आज जनसंख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग और उच्च जातियों का क्या प्रतिशत है? यह सूचना 1931 की जनगणना में अंतिम बार दी गई थी, उसके बाद जनगणना आयोग ने केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की ही गणना की। प्रश्न यह है कि अन्य पिछड़े वर्ग और उच्च जातियों की जनगणना क्यों बंद की गई थी और आज उसे पुन: शुरू करवाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? जातिगत जनगणना बंद कराने के बहुत से कारण थे जो गृह मंत्रालय के दस्तावेजों में उपलब्ध हैं और नेहरू से लेकर राजीव गांधी, नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी आदि के तर्कपूर्ण विचारों में व्यक्त हैं, लेकिन उसे पुन: शुरू कराने के पीछे कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की क्या मंशा थी? क्या सपा के मुलायम सिंह यादव, राजद के लालू यादव और जदयू के शरद यादव का मनमोहन सरकार पर दबाव था? क्या जातियों के आंकड़े इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति को और दृढ़ किया जा सके? आज हम इतने जाति-परस्त क्यों हो गए हैं कि हमें केवल अपनी जाति और उसकी संख्या में ही दिलचस्पी है? भारतीय संविधान तो एक मिसाल है जो सबको वयस्क मताधिकार देकर यह सुनिश्चित करता है कि सामाजिक संख्या बल को राजनीतिक शक्ति का हथियार बनाया जा सकता है। यदि कोई सामाजिक वर्ग बहुसंख्यक है तो ध्यान इस पर होना चाहिए कि उस सामाजिक वर्ग को कैसे एकता के सूत्र में पिरोया जाए? कैसे उस संपूर्ण सामाजिक वर्ग को एक साथ ऊपर उठाया जाए? लेकिन जब उस सामाजिक वर्ग के अंदर ही स्वयं उपजातीय प्रश्न मुखर हों और आर्थिक असमानताएं गंभीर हों तो फिर उस सामाजिक वर्ग के हिमायती बनने का क्या औचित्य?

वास्तव में अगर संपूर्ण समाज को देखा जाए तो जातीय राजनीति के चलते हम वर्तमान के लिए भविष्य को कुर्बान कर रहे हैं। अगर भारत में जाति तीन हजार वर्ष पुरानी संस्था है और उसकी विसंगतियां भी उतनी ही पुरानी हैं तो उससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता, लेकिन उस व्यवस्था को तो हम स्वतंत्रता प्राप्ति और संविधान-निर्माण के साथ ही छोड़ने का संकल्प ले चुके हैं। फिर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जन्मे जिन भारतीयों ने जातिगत शोषण में कोई सहभागिता न की, उनको भी उसका दंड क्यों भुगतना पड़ रहा है, उनका प्रतिलोम-शोषण पिछले 65 वषरें से अनवरत चल रहा है और अभी निकट भविष्य में उसकी कोई सीमा रेखा भी दिखाई नहीं देती। कोई भी राजनीतिक दल इस संवेदनशील प्रश्न में अपना हाथ नहीं डालना चाहता। अफसोस तो इस बात का है कि रोज 'क्रीमी-लेयर' की परिभाषा बदलकर पिछड़े वर्ग के अति-पिछड़ों को अनवरत वंचित रखने का खेल चल रहा है। लगता नहीं है कि अभी देश में कोई ऐसा दमदार नेतृत्व है जो जाति से ऊपर उठकर वर्ग की बात करे। क्यों हमारे लिए 'गरीब' महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए चाहे वह किसी भी जाति का हो? गरीबी न केवल रोजमर्रा की जिंदगी के लिए अभिशाप है, बल्कि वह मनुष्य में आत्मविश्वास खत्म कर देती है और जीवन के संघषरें से निपटने में कमजोर कर देती है। क्या हमें जाति की जगह आर्थिक-वर्ग को निशाना नहीं बनाना चाहिए?

Explanation:

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Answered by Anonymous
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सामाजिक-आर्थिक एवं जातिगत जनगणना 2011 की जिस उत्सुकता से प्रतीक्षा थी उसे जारी किए गए आंकड़ों ने पूरी न की। देश को अपनी बदहाली के आंकड़ों में उतनी दिलचस्पी न थी जितनी सरकार को। लोग यह जानने को ज्यादा उत्सुक थे कि आज जनसंख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग और उच्च जातियों का क्या प्रतिशत है? यह सूचना 1931 की जनगणना में अंतिम बार दी गई थी, उसके बाद जनगणना आयोग ने केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की ही गणना की। प्रश्न यह है कि अन्य पिछड़े वर्ग और उच्च जातियों की जनगणना क्यों बंद की गई थी और आज उसे पुन: शुरू करवाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? जातिगत जनगणना बंद कराने के बहुत से कारण थे जो गृह मंत्रालय के दस्तावेजों में उपलब्ध हैं और नेहरू से लेकर राजीव गांधी, नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी आदि के तर्कपूर्ण विचारों में व्यक्त हैं, लेकिन उसे पुन: शुरू कराने के पीछे कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की क्या मंशा थी? क्या सपा के मुलायम सिंह यादव, राजद के लालू यादव और जदयू के शरद यादव का मनमोहन सरकार पर दबाव था? क्या जातियों के आंकड़े इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि जाति आधारित वोट बैंक की राजनीति को और दृढ़ किया जा सके? आज हम इतने जाति-परस्त क्यों हो गए हैं कि हमें केवल अपनी जाति और उसकी संख्या में ही दिलचस्पी है? भारतीय संविधान तो एक मिसाल है जो सबको वयस्क मताधिकार देकर यह सुनिश्चित करता है कि सामाजिक संख्या बल को राजनीतिक शक्ति का हथियार बनाया जा सकता है। यदि कोई सामाजिक वर्ग बहुसंख्यक है तो ध्यान इस पर होना चाहिए कि उस सामाजिक वर्ग को कैसे एकता के सूत्र में पिरोया जाए? कैसे उस संपूर्ण सामाजिक वर्ग को एक साथ ऊपर उठाया जाए? लेकिन जब उस सामाजिक वर्ग के अंदर ही स्वयं उपजातीय प्रश्न मुखर हों और आर्थिक असमानताएं गंभीर हों तो फिर उस सामाजिक वर्ग के हिमायती बनने का क्या औचित्य?

वास्तव में अगर संपूर्ण समाज को देखा जाए तो जातीय राजनीति के चलते हम वर्तमान के लिए भविष्य को कुर्बान कर रहे हैं। अगर भारत में जाति तीन हजार वर्ष पुरानी संस्था है और उसकी विसंगतियां भी उतनी ही पुरानी हैं तो उससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता, लेकिन उस व्यवस्था को तो हम स्वतंत्रता प्राप्ति और संविधान-निर्माण के साथ ही छोड़ने का संकल्प ले चुके हैं। फिर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जन्मे जिन भारतीयों ने जातिगत शोषण में कोई सहभागिता न की, उनको भी उसका दंड क्यों भुगतना पड़ रहा है, उनका प्रतिलोम-शोषण पिछले 65 वषरें से अनवरत चल रहा है और अभी निकट भविष्य में उसकी कोई सीमा रेखा भी दिखाई नहीं देती। कोई भी राजनीतिक दल इस संवेदनशील प्रश्न में अपना हाथ नहीं डालना चाहता। अफसोस तो इस बात का है कि रोज 'क्रीमी-लेयर' की परिभाषा बदलकर पिछड़े वर्ग के अति-पिछड़ों को अनवरत वंचित रखने का खेल चल रहा है। लगता नहीं है कि अभी देश में कोई ऐसा दमदार नेतृत्व है जो जाति से ऊपर उठकर वर्ग की बात करे। क्यों हमारे लिए 'गरीब' महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए चाहे वह किसी भी जाति का हो? गरीबी न केवल रोजमर्रा की जिंदगी के लिए अभिशाप है, बल्कि वह मनुष्य में आत्मविश्वास खत्म कर देती है और जीवन के संघषरें से निपटने में कमजोर कर देती है। क्या हमें जाति की जगह आर्थिक-वर्ग को निशाना नहीं बनाना चाहिए?

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