Hindi, asked by uraonmonika097, 3 months ago

जयशंकर प्रसाद की कविता गत विशेषता बताएं हिंदी में​

Answers

Answered by anushkasawant3101
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Explanation:

प्रसाद की काव्य रचनाएँ दो वर्गो में विभक्त है : काव्यपथ अनुसंधान की रचनाएँ और रससिद्ध रचनाएँ। 'चित्राधार' से लेकर 'झरना' तक प्रथम वर्ग की रचनाएँ हैं, जबकि आँसू, लहर तथा कामायनी दूसरे वर्ग की रचनाएँ हैं। उन्होंने काव्यरचना ब्रजभाषा में आरम्भ की और धीर-धीरे खड़ीबोली को अपनाते हुए इस भाँति अग्रसर हुए कि खड़ी बोली के मूर्धन्य कवियों में उनकी गणना की जाने लगी और वे युगप्रवर्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

अल्पवयस् में ही स्वाभाविक रूप से प्रसाद जी साहित्य के गहन अध्येता बन चुके थे। इसका प्रमाण उनकी रचनाओं से मिलता है। १९०९ ई॰ में 'इन्दु' में प्रकाशित 'प्रेम-' शीर्षक कविता तथा १९१० ई॰ में 'इन्दु' में ही प्रकाशितकवि और कविता' शीर्षक निबंध इसका प्रमाण है। 'प्रेम-पथिक' का प्रथम प्रकाशन ब्रजभाषा में हुआ था। बाद में इसका परिमार्जित और परिवर्धित संस्करण खड़ी बोली में नवंबर १९१४ में 'प्रेम-पथ' नाम से और उसका अवशिष्ट अंश दिसंबर १९१४ में 'चमेली' शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

" 'प्रेम-पथिक' का महत्त्व प्रसाद की व्यापक

और उदार दृष्टि, सर्वभूत हित कामना, समता

की इच्छा, प्रतिपद कल्याण करने का

संकल्प, प्रकृति की गोद में सुख का स्वप्न

आदि के बीजभाव के कारण तो है ही,

प्रसाद ने प्रेम के अनुभूतिपरक अनेक रूपों

का जो वर्णन किया है उसके कारण भी है।"

Answered by amitagarwal12150
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Answer:

प्रसाद को मुलता सौंदर्य एवं प्रेम का कवि माना जाता था। अपने साहित्य के उन्होंने प्रेम का कवि माना जाने लगा।अपने साहित्य में उन्होंने प्रचीन के प्रति निष्ठा और प्रेम की अभिवयक्ति की है। वह शिव के उपासक थे।

Explanation:

जयशंकर प्रसाद की काव्य रचनाएँ हैं: कानन कुसुम, महाराणा का महत्व, झरना (1918), आंसू, लहर, कामायनी (1935) और प्रेम पथिक । प्रसाद की काव्य रचनाएँ दो वर्गो में विभक्त है : काव्यपथ अनुसंधान की रचनाएँ और रससिद्ध रचनाएँ। आँसू, लहर तथा कामायनी दूसरे वर्ग की रचनाएँ हैं। उन्होंने काव्यरचना ब्रजभाषा में आरम्भ की और धीर-धीरे खड़ी बोली को अपनाते हुए इस भाँति अग्रसर हुए कि खड़ी बोली के मूर्धन्य कवियों में उनकी गणना की जाने लगी और वे युगवर्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

काव्यक्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार 'कामायनी' है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है। उनकी यह कृति छायावाद ओर खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। सुमित्रानंदन पंत इसे 'हिंदी में ताजमहल के समान' मानते हैं। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है।

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