Jeevan Ki shuruat kahan se hui thi
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इतिहास
आज के आधुनिक इन्सान में भी नुकसान और आपदांओ से लड़ने की वही सुरक्षा प्रवृत्ती पायी जाती है जो प्राचीन काल के मानव में व्याप्त थी। आग और बाढ जैसी आपदों से बचने के लिये उन्होंने कोषिषे की और अपनी सुरक्षा के लिये हर प्रकार के बलिदान देने को भी तत्पर रहते थे।हालांकि बीमा करण कि अवधरणा पिछले कुछ वर्षों में ही आयी है, खास तौर से उद्धोगिकरण के बाद के समय में... कुछ सदियों पहले... लेकिन फिर भी इसके अंकुर 6000 साल पहले ही फूट चुके थे।
जीवन बीमा अपने आधुनिक रूप के साथ 1818 दशक में इंग्लैंड से भारत आई। भारत की पहली जीवन बीमा कम्पनी कलकत्ता में युरोपियन्स के द्वारा शुरू कि गई जिसका नाम था ओरिएन्टंल लाईफ इंश्योरेंस। उस समय सभी बीमा कम्पनीयों कि स्थापना युरोपिय समुदाय की जरूरत को पुरा करने वे लिये की गई थी और ये कम्पनीया भारतीय मूल के लोगों का बीमा नहीं करती थी, लेकिन कुछ समय बाद बाबू मुत्तीलाल सील जैसे महान व्यक्तियों कि कोशिशों से विदेशी जीवन बीमा कम्पनीयों ने भारतीयों का भी बीमा करण करना शुरू किया। परन्तु यह कम्पनीयां भारतीयों के साथ निम्न स्तर का व्यवहार रखती थी, जैसे भारी और अधिक प्रिमियम की मांग करना। भारत की पहली जीवन बीमा कम्पनी की नीव 1870 में मुंबई म्युचुअल लाइफ इंश्योरेंस सोसायटी के नाम से रखी गई, जिसने भारतीयों का बीमा भी समान दरों पर करना शुरू किया. पूरी तरह स्वदेशी इन कम्पनियों की शुरूआत देशभक्ति की भावना से हुयी. ये कम्पनियां समाज के विभिन्न वर्गों की सुरक्षा और बीमा करण का संदेश लेकर सामने आयी थीं. भारत बीमा कम्पनी (1896) भी राष्ट्रीयता से प्रभावित एक ऐसी ही कम्पनी थी.1905 - 1907 के स्वदेशी आंदोलन ने ऐसी और भी कई बीमा कम्पनीयों को बधवॉ दिया। मद्रास में दि युनाईटेड इंडिया, कोलकाता में नेशनल इण्डियन और नेशनल इंश्योरेंस के तहत 1906 में लाहौर में को - ऑपरेटिव्ह बीमा की स्थापना हुई. कोलकाता में महान कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर के घर जोरासंख्या के एक छोटे से कमरे में हिदुस्तान को - ऑपरेटिव्ह इंश्योरेंस कम्पनी का जन्म 1907 में हुआ. उन दिनों स्थापित होने वाली कुछ ऐसी ही कम्पनियों में थीं- द इण्डियन मर्कन्टाईल, जनरल इंश्योरेंस और स्वदेशी लाइफ (जो बाद में मुंबई लाइफ के नाम से जानी गई)।1912 से पहले भारत में बीमा व्यापार के लिये कोई भी कानून नहीं बना था. 1912 में लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी एक्ट और प्रोविडेन्ड फन्ड एक्ट पारित हुये, जिसके परिणामस्वरूप बीमा कम्पनियों के लिए अपने प्रीमियम रेट टेबल्स और पेरिओडिकल वैल्युएशन्स को मान्यता प्राप्त अधिकारी से प्रमाणित करवाना आवश्यक हो गया. मगर इस धारा ने विदेशी और भारतीय कम्पनियों के प्रति कई स्तर पर भेद- भाव भर दिया, जो भारतीय कम्पनियों के लिये हानिकारक था. 20वीं सदी के पहले दो दशकों में बीमा का व्यापार तेज़ी से बढ़ा. 44 कम्पनियों ने जहां 22,24 करोड़ रूपये का व्यापार किया, वहीं 1938 के आते- आते कम्पनियों की संख्या बढ़ कर 176 हो गई, जिनका कुल व्यापार 298 करोड़ रूपये था. बीमा कम्पनियों के तेज़ी से बढ़ते हुए उद्योग को देखकर आर्थिक रूप से कमजोर कुछ कम्पनियां भी सामने आईं, जिनकी योजनाएं बाद में बुरी तरह नाकाम हुईं.
द इंश्योरेंस एक्ट 1938 भारत का पहला ऐसा कायदा था, जिसने जीवन बीमा के साथ- साथ सभी बीमा कम्पनियों के उद्योग पर राज्य सरकार का कड़ा नियंत्रण लागू किया.काफी समय से जीवन बीमा उद्योग को राष्ट्रीय करण प्रदान करने की मांग चल रही थी, लेकिन इसने गति 1944 में पकड़ी जब 1938 में लेजिस्लेटिव असेम्बली के सामने लाइफ इंश्योरेंस एक्ट बिल को संशोधित करने का प्रस्ताव रखा गया. इसके बावजूद भारत में काफी समय के बाद जीवन बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीय करण 18 जनवरी 1956 में हुआ. राष्ट्रीय करण के समय भारत में करीब 154 जीवन बीमा कम्पनियां, 16 विदेशी कम्पनियां और 75 प्रोविडेंड कम्पनियां कार्यरत थीं.
इन कम्पनियों का दो स्थितियों में राष्ट्रीय करण हुआ प्राथमिक अवस्था में इन कम्पनियों के प्रशासनिक आधिकार ले लिए गए, तत्पश्चात एक कॉम्प्रेहेन्सिव बिल के तहत इन कम्पनियों का स्वामित्व भी सरकार ने अपने कब्ज़े में ले लिया. भारतीय संविधान ने 19 जून 1956 को लाइफ इंश्योरेंस कार्पोरेशन एक्ट पास किया. 1 सितंबर 1956 में लाइफ इंश्योरेंस कार्पोरेशन ऑफ इण्डिया की स्थापना हुई, जिसका उद्देश था, जीवन बीमा को बड़े पैमाने पर फैलाना, खास तौर पर गाँव में, ताकि भारत के हर नागरिक को पर्याप्त आर्थिक सहायता उचित दरों पर उपलब्ध करवाई जा सके. एल. आई. सी के 5 ज़ोनल अधिकारी थे, 33 डिवीज़नल ऑफिसर और 212 शाखा अधिकारी थे, इसके अलावा कार्पोरेट ऑफिस भी बना.
आज के आधुनिक इन्सान में भी नुकसान और आपदांओ से लड़ने की वही सुरक्षा प्रवृत्ती पायी जाती है जो प्राचीन काल के मानव में व्याप्त थी। आग और बाढ जैसी आपदों से बचने के लिये उन्होंने कोषिषे की और अपनी सुरक्षा के लिये हर प्रकार के बलिदान देने को भी तत्पर रहते थे।हालांकि बीमा करण कि अवधरणा पिछले कुछ वर्षों में ही आयी है, खास तौर से उद्धोगिकरण के बाद के समय में... कुछ सदियों पहले... लेकिन फिर भी इसके अंकुर 6000 साल पहले ही फूट चुके थे।
जीवन बीमा अपने आधुनिक रूप के साथ 1818 दशक में इंग्लैंड से भारत आई। भारत की पहली जीवन बीमा कम्पनी कलकत्ता में युरोपियन्स के द्वारा शुरू कि गई जिसका नाम था ओरिएन्टंल लाईफ इंश्योरेंस। उस समय सभी बीमा कम्पनीयों कि स्थापना युरोपिय समुदाय की जरूरत को पुरा करने वे लिये की गई थी और ये कम्पनीया भारतीय मूल के लोगों का बीमा नहीं करती थी, लेकिन कुछ समय बाद बाबू मुत्तीलाल सील जैसे महान व्यक्तियों कि कोशिशों से विदेशी जीवन बीमा कम्पनीयों ने भारतीयों का भी बीमा करण करना शुरू किया। परन्तु यह कम्पनीयां भारतीयों के साथ निम्न स्तर का व्यवहार रखती थी, जैसे भारी और अधिक प्रिमियम की मांग करना। भारत की पहली जीवन बीमा कम्पनी की नीव 1870 में मुंबई म्युचुअल लाइफ इंश्योरेंस सोसायटी के नाम से रखी गई, जिसने भारतीयों का बीमा भी समान दरों पर करना शुरू किया. पूरी तरह स्वदेशी इन कम्पनियों की शुरूआत देशभक्ति की भावना से हुयी. ये कम्पनियां समाज के विभिन्न वर्गों की सुरक्षा और बीमा करण का संदेश लेकर सामने आयी थीं. भारत बीमा कम्पनी (1896) भी राष्ट्रीयता से प्रभावित एक ऐसी ही कम्पनी थी.1905 - 1907 के स्वदेशी आंदोलन ने ऐसी और भी कई बीमा कम्पनीयों को बधवॉ दिया। मद्रास में दि युनाईटेड इंडिया, कोलकाता में नेशनल इण्डियन और नेशनल इंश्योरेंस के तहत 1906 में लाहौर में को - ऑपरेटिव्ह बीमा की स्थापना हुई. कोलकाता में महान कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर के घर जोरासंख्या के एक छोटे से कमरे में हिदुस्तान को - ऑपरेटिव्ह इंश्योरेंस कम्पनी का जन्म 1907 में हुआ. उन दिनों स्थापित होने वाली कुछ ऐसी ही कम्पनियों में थीं- द इण्डियन मर्कन्टाईल, जनरल इंश्योरेंस और स्वदेशी लाइफ (जो बाद में मुंबई लाइफ के नाम से जानी गई)।1912 से पहले भारत में बीमा व्यापार के लिये कोई भी कानून नहीं बना था. 1912 में लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी एक्ट और प्रोविडेन्ड फन्ड एक्ट पारित हुये, जिसके परिणामस्वरूप बीमा कम्पनियों के लिए अपने प्रीमियम रेट टेबल्स और पेरिओडिकल वैल्युएशन्स को मान्यता प्राप्त अधिकारी से प्रमाणित करवाना आवश्यक हो गया. मगर इस धारा ने विदेशी और भारतीय कम्पनियों के प्रति कई स्तर पर भेद- भाव भर दिया, जो भारतीय कम्पनियों के लिये हानिकारक था. 20वीं सदी के पहले दो दशकों में बीमा का व्यापार तेज़ी से बढ़ा. 44 कम्पनियों ने जहां 22,24 करोड़ रूपये का व्यापार किया, वहीं 1938 के आते- आते कम्पनियों की संख्या बढ़ कर 176 हो गई, जिनका कुल व्यापार 298 करोड़ रूपये था. बीमा कम्पनियों के तेज़ी से बढ़ते हुए उद्योग को देखकर आर्थिक रूप से कमजोर कुछ कम्पनियां भी सामने आईं, जिनकी योजनाएं बाद में बुरी तरह नाकाम हुईं.
द इंश्योरेंस एक्ट 1938 भारत का पहला ऐसा कायदा था, जिसने जीवन बीमा के साथ- साथ सभी बीमा कम्पनियों के उद्योग पर राज्य सरकार का कड़ा नियंत्रण लागू किया.काफी समय से जीवन बीमा उद्योग को राष्ट्रीय करण प्रदान करने की मांग चल रही थी, लेकिन इसने गति 1944 में पकड़ी जब 1938 में लेजिस्लेटिव असेम्बली के सामने लाइफ इंश्योरेंस एक्ट बिल को संशोधित करने का प्रस्ताव रखा गया. इसके बावजूद भारत में काफी समय के बाद जीवन बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीय करण 18 जनवरी 1956 में हुआ. राष्ट्रीय करण के समय भारत में करीब 154 जीवन बीमा कम्पनियां, 16 विदेशी कम्पनियां और 75 प्रोविडेंड कम्पनियां कार्यरत थीं.
इन कम्पनियों का दो स्थितियों में राष्ट्रीय करण हुआ प्राथमिक अवस्था में इन कम्पनियों के प्रशासनिक आधिकार ले लिए गए, तत्पश्चात एक कॉम्प्रेहेन्सिव बिल के तहत इन कम्पनियों का स्वामित्व भी सरकार ने अपने कब्ज़े में ले लिया. भारतीय संविधान ने 19 जून 1956 को लाइफ इंश्योरेंस कार्पोरेशन एक्ट पास किया. 1 सितंबर 1956 में लाइफ इंश्योरेंस कार्पोरेशन ऑफ इण्डिया की स्थापना हुई, जिसका उद्देश था, जीवन बीमा को बड़े पैमाने पर फैलाना, खास तौर पर गाँव में, ताकि भारत के हर नागरिक को पर्याप्त आर्थिक सहायता उचित दरों पर उपलब्ध करवाई जा सके. एल. आई. सी के 5 ज़ोनल अधिकारी थे, 33 डिवीज़नल ऑफिसर और 212 शाखा अधिकारी थे, इसके अलावा कार्पोरेट ऑफिस भी बना.
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