juti he tateri dadi summary
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पुस्तक 'झूठी है तेतरी दादी' ग्यारह कहानियों का संग्रह है । इस संग्रह में एक कहानी है 'झूठी है तेतरी दादी' यह ऐसी कहानी है, जो हमारी सामाजिक जाति आधारित व्यवस्था को दिखाती है, तेतरी साठ वर्ष पहले आरा रेलवे स्टेशन पर डोली में आती है, शायद लगन के दौरान होने वाली शादी थी। स्टेशन पर दुल्हन ही दुल्हन, ट्रेन में भीड़ ही भीड़ तभी ट्रेन ने सीटी दी और चल पड़ी । तेतरी के भाई और बाबूजी ने उसे उठा कर ट्रेन में फेंक दिया था, जैसे वह इंसान ही नहीं । तेतरी को कुछ भी पता नहीं कि कहाँ जा रही है । एक अनजानासा डर कहीं ये लोग डाकू तो नहीं और वह बेहोश गयी ।
होश आया तो पाया कि कुछ औरतें उसे पकड़े हुए हैं और कोई दूल्हा जैसा बगल में है और उसकी परछन हो रही है । चार दिन गुजरने के बाद पगफेरा में जो लोग आये वे दूसरे ही लोग थे । जब तेतरी को उनके पास भेजा गया तो उन्होंने कहा यह हमारी बेटी नहीं है । पाण्डेय जी के बाबू जी ने पूछा कि यह कौन है, तो उन्होंने कहा हमें नहीं पता, कौन है, लेकिन हमारी बेटी नहीं है । ले आइए हमारी बेटी को । अब बात स्पष्ट हो चुकी थी कि दुल्हन अदला -बदली गयी है । तेतरी को भी डरा धमका कर पूछा गया कि वह कौन है? उसे सिर्फ अपने गाँव का नाम याद था सुकुलपुर । तेतरी को यह भी पता नहीं था की सुकुलपुर कहाँ है । बहुत खोजाहट हुई, लेकिन सुकुलपुर का पता न चला । इस बीच तेतरी गर्भवती हो गयी । बहुत सोच विचार कर यह मान लिया गया कि यह सुकुलपुर की ब्राह्मण ही होगी । शायद उनके पास तेतरी को स्वीकार करने के आलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं था । यह बात किसी को पता नहीं चली कि तेतरी कौन है, तेतरी से चार बच्चे भी हुए । तेतरी के पति पाण्डेय जी का भी स्वर्गवास हो गया था । पोते के शादी ब्याह के सिलसिले में सुकुलपुर से कोई आया और दुल्हन अदलाबदली का किस्सा सुनाने लगा तब यह बात खुली की तेतरी सुकुलपुर की एक निम्न जाति की लड़की थी ।
जो बदलाकर पाण्डेय जी के घर में आ गयी थी । यहाँ पर तेतरी का पारिवारिक बहिष्कार शुरू होता है, उसके परिवार वाले बूढी तेतरी को घर से निकाल कर सुकुलपुर छोड़ आते हैं । जहाँ उसके मायके वाले उसे कुजात की उपाधि देते हैं । साठ वर्ष का डर तेतरी को खा गया, वह पागल हो कर मर गयी । कहानी स्पष्ट करती है कि जाति के स्वरूप में चाहे जो भी परिवर्तन हो रहा हो, पर जाति से पीछा छुड़ाना आज भी सम्भव नहीं लगता है ' झूठी है तेतरी दादी' कहानी भारतीय जाति आधारित व्यवस्था को सामने लाती है । सतहत्तर-पचहत्तर वर्ष की विधवा का विडम्बनापूर्ण परिस्थियों में फँस कर एक ब्राह्मण परिवार में जाना । बेटा-बेटी, नाती-पोता होने के बाद उसे घर से इसलिए निकाल दिया गया की वह निम्न जाति की थी । एक अनपढ़, दलित स्त्री की व्यथा को कहानी रेखांकित करती है । प्रेमचन्द से पहले हिन्दी कहानी उस रूप में नहीं थी, जिस रूप में उसे बाद में जाना गया - जिस रूप में एक साहित्य-विधा के बतौर उसने मान्यता पायी। पहले कहानी का मतलब था आख्यान, और वह आख्यान ‘कथा सरित्सागर’, ‘कादम्बरी’, ‘अरब की हजार रातें’ से होता हुआ हिन्दी तक आया था। प्रेमचन्द ने आख्यान-तत्त्व को बरकरार रखते हुए, उसमें भारत के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक यथार्थ की भावना देकर हिन्दी कहानी का विकास किया। उसके बाद हिन्दी कहानी वह नहीं रह गयी, जो पहले थी। 1980 के दशक के कथाकारों में प्रेमचन्द की यथार्थवादी धारा को वर्तमान तक लाने वाले हस्ताक्षरों में संजीव का नाम अग्रणी है।
वे उन कथाकारों में भी हैं जिनके नाम के साथ अंग्रेजी का ‘प्रोलिफ़िक’ विशेषण बेहिचक जोड़ा जा सकता है। सात उपन्यासों और ग्यारह कहानी संग्रहों के साथ वे समकालीन कथाकारों में दूर से पहचाने जाते हैं। लोक संस्कृति और शहरी संस्कृति के द्वन्द्व को जिस पैनी दृष्टि से उनकी रचनाएँ उभारती हैं, उसी अभिज्ञा के साथ भूमंडलीकरण, बाजार अर्थ-नीति और विकास के निहितार्थ भी उनके यहाँ उजागर होते हैं। ग्यारह कहानियों के संजीव के इस नये संग्रह में भी सजग पाठक देखेंगे कि एक ओर जहाँ ग्राम-समाज में पारम्परिक सामन्ती ढाँचा बुरी तरह चरमरा रहा है और एक तरह का नया अर्थवाद उभरकर सामने आ रहा है (मौसम), वहीं दूसरी ओर पर्दा प्रथा, जाति और वर्ण की जकड़बन्दी यथावत् है, जिसका आखेट तेतरी जैसी निश्छल-निरक्षर महिलाएँ होती हैं। यहाँ संजीव ‘हत्यारा’ और ‘हत्यारे’, ‘नायक’ और ‘खलनायक’ और ‘अभिनय’ को जिन अर्थों में परिभाषित करते हैं, उनके बाजार-पूँजीवाद, कृषि-विमुख औद्योगिक जाल और मीडिया द्वारा प्रचारित नयी रूढ़ियों के अट्टहास साफ-साफ सुने जाएँगे। संजीव की ये कहानियाँ आज के विश्व-समय की हमारे सामाजिक जीवन और आर्थिक ढाँचे पर पड़ रही प्रतिछाया का अभिलेख-भर नहीं हैं, बल्कि एक जरूरी और उत्तेजक विमर्श भी खड़ा करती हैं, जिसका सम्बन्ध हम-आप-सब से है।