के
(3) अविगत नाथ निरंजन देवा।
मैं का जानूं तुम्हरि सेवा।।
हुत
हत बांधू न बंधन छांऊँ न छाया, तुमही सेऊँ निरंजन राया।
चरन पताल सीस असमाना, सो ठाकुर कैसैं संपटि समाना।।
ना
च
को
सिव सनकादिक अंत न पाया, खोजत ब्रह्मा जनम गंवाया।
तोडूं न पाती पूजौं न देवा, सहज समाधि करौं हरि सेवा।।
नख प्रसेद जाके सुरसुरी धारा, रोमावली अठारह भारा।
चारि बेद जाकै सुमृत सासा, भगति हेत गावै रैदासा।।
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अबिगत नाथ निरंजन देवा।
मैं का जांनूं तुम्हारी सेवा।। टेक।।
बांधू न बंधन छांऊँ न छाया तुमहीं सेऊँ निरंजन राया।।१।।
चरन पताल सीस असमांना सो ठाकुर कैसैं संपटि समांना।।२।।
सिव सनिकादिक अंत न पाया खोजत ब्रह्मा जनम गवाया।।३।।
तोडूँ न पाती पूजौं न देवा सहज समाधि करौं हरि सेवा।।४।।
नख प्रसेद जाकै सुरसुरी धारा रोमावली अठारह भारा।।५।।
चारि बेद जाकै सुमृत सासा भगति हेत गावै रैदासा।।६।।
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