Hindi, asked by laviniarao1, 9 months ago

क. आलोचकों के बारे में कबीर की क्या राय है ?​

Answers

Answered by tripathiakshita48
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Answer:

निंदक अर्थात् आलोचकों के बारे में कबीर की राय समाज से बिलकुल भी मेल नहीं खाती थी। समाज के लोग निंदा के भय से आलोचकों को अपने आसपास फटकने भी नहीं देते हैं। इसके विपरीत कबीर का मत था कि निंदकों को अपने आसपास ही बसने की जगह देना चाहिए। ऐसा करना व्यक्ति के हित में होता है।

Explanation:

कबीर के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में हिंदी के आलोचक एकमत नहीं है। आलोचकों की तीखी नजर कबीर जैसे प्रतिभा मंडित व्यक्ति का चीर-फाड़ कर हर ऐंगल से देखने का कार्यक्रम सिलसिले वार से शुरू कर दिया। कबीर के व्यक्तित्व से जुड़ी शायद ही कोई कोना आलोचकों की कलम की धार से छूटी हो। सभी आलोचक हथियारबंद होकर कबीर के पीछे जुटे हुए हैं, ताकि कबीर संबंधी नये-नये तथ्य उजागर कर सकें। आलोचकों का यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है। आगे आलोचकों के द्वारा किए गए चेष्टा को दिखाने का प्रयास हुआ है। सर्वप्रथम रामस्वरुप चतुर्वेदी की दृष्टि में कबीर के व्यक्तित्व को समझने का प्रयास हुआ है। कबीर के विषय में उनकी राय कुछ इस प्रकार है- “अपने कृतित्व को समाज से मिलाकर और अपने व्यक्तित्व को रचना से अभिन्न करके वे सच्चे अर्थों में ‘सुकवि’ बनते हैं, जिनके ऊपर जरा-मरण के नियमों का असर नहीं होता। कबीर इसी कोटि के रचनाकार है।”1  यहाँ कबीर के ‘कवि’ स्वरूप को दिखाया गया है। कहीं न कहीं बच्चन सिंह भी कबीर के विषय में यही विचार रखते हैं। तभी तो वे लिखते हैं- “कबीर ने साहित्य के लिए साहित्य नहीं लिखा। मस्तमौला राम को साहित्य से क्या मतलब? पर उनका उच्छल आवेग, मानवीय संवेदना, घर जीवनबोध उनके ‘कहन’ को साहित्य बना देते हैं।… दीन-दुखियों के लिए लड़नेवाले व्यक्ति का काव्य काव्यत्व से रिक्त हो ही नहीं सकता।… उनकी कविता की भाषिक संरचना, जो औरों से अलग है, बताती है कि यह कवि की वैश्विक दृष्टि के अनुरूप है। उनकी संरचना को मुख्यतः विसंगतियों, विरोधाभासों और विडंबनाओं से बुना गया है। उसकी बुनावट एक अलग काव्यशास्त्र के निर्माण की माँग करती है।”2 बच्चन सिंह कबीर को केवल कवि के रूप में देखने के पक्षपाती नहीं हैं बल्कि उससे एक कदम आगे, उन्हें एक क्रांतिकारी व्यक्ति के रूप में भी स्वीकारते हैं। इसलिए लिखते हैं- “उन्हें सुधारक कहना उनके महत्व को कम करना है। वे एक ऐसे धर्म की स्थापना करना चाहते थे जिसमें न कोई हिन्दू हो न मुसलमान, न कोई मौलवी हो न पुरोहित, न कोई शेख हो न बरहमन, सब मनुष्य हों। यह क्रांतिकारी कदम था न कि सुधारवाद।”3 अर्थात् कबीर समाज में समता के भाव को विस्तारित करना चाहते थे।

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