(क) बीज से मानव की तुलना की गई है
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गत अध्याय में इस तथ्य पर विचार किया जा चुका है कि धरती और बीज का संबंध एकांतिक नहीं है, उसका संबंध ऐकांतिक नहीं है, उसका संबंध सम्पूर्ण चराचर प्रकृति से है। दिक् और काल, सूरज, चंदा, नक्षत्रमंडल, वायु, मेघ, ॠतुचक्र सभी के साथ बीज का अंत:संबंध है। सृष्टि में सबकुछ गतिशील है। हवा चलती है, नदियाँ बहती हैं, समुद्र में तरंगें उठती हैं, दिन और रात होते हैं, काल कि गति के साथ सबकुछ गतिशील है और वही गति बीज में भी है। धरती और बीज का ऐसा अंत:संबंध है कि बीज सौ-सौ गतियों के साथ धरती पर पहुँच जाता है-वायु में बहकर, जल प्रवाह में बहकर, पक्षी की बीट के साथ, पशु के गोबर के साथ और फिर धरती की कोख में स्थापित हो जाता है। इसके बाद अंकुरित होता है, पल्लवित और पुष्पित होता है, बढ़ता है और पूर्ण वृक्ष बन जाता है और पुन: अपनी सम्पूर्ण जीवनी शक्ति को बीज में स्थापित कर देता है, ताकि पुन: नया जन्म ले सके। सम्पूर्ण जीव-दृष्टि में यही प्रक्रिया निरंतर चल रही है। इस प्रक्रिया को लोक और शास्र दोनों ने पंचमहाभूतों की प्रक्रिया के रुप में पहचाना है। जिस प्रकार बीज-वृक्ष का सम्पूर्ण जीवन पृथ्वी, जल, प्रकाश-ऊष्मा (तेज), वायु और आकाश की प्रक्रिया है, वही बात मानव-जीवन के संबंध में भी कही जा सकती है। बीज-वृक्ष जिन तत्त्वों को संचित करते हैं, वे तत्त्व भोजन के माध्यम से मानव-शरीर में पहुँच जाते हैं।
१. बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज-इस चक्राकार जीवन-गति के साथ बीज की एक दूसरी गति भी है। यही बीज अन्न के रुप में प्राणियों के शरीर में पहुँचकर प्राण बन जाता है। अन्न के बिना प्राणों की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
अन्न भोजन है और भोजन सम्पूर्ण प्राणियों की आधारभूत आवश्यकता है।
१.१. अन्न : जीवन का उद्गम
उपनिषदों में अन्न को ब्रह्म (तै. ३.२.१) तथा प्रजापति कहा गया है-
अन्नाद्वेै प्रजा: प्रजायन्ते, अथो अन्नेन जीवंति (तै. २.२.१)
अन्नाद्भूतानि जायंते जातान्यन्नेन वर्धन्ते (वही)
अन्नं वै प्रजापति: (प्रश्न ३.१.१४)
अर्थात् जो स्थूल शरीर उत्पन्न हुआ, वह अन्न ही है। अन्न में सब जीव रहते हैं। अन्न से ही उत्पन्न होते हैं तथा अन्न से जीवित रहते हैं। प्राण अन्न का ही रस है, अन्न ही प्रजापति है। अन्न से रेत बनता है, रेत से प्रजा की उत्पत्ति होती है। सब पशु-पक्षी भी अन्न खाते हैं, अन्न से वीर्य बनता है और उससे संतानोत्पत्ति होती है। अन्न से शरीर ही नहीं मन भी बनता है-'जैसौ खाये अन तैसो होय मन।'
यह अन्न औषधि-वनस्पतियों से संभूत है, इसलिए बीज जीवन का उद्गम है।
२.
मनुष्य के शरीर और प्राणों में बीज की शक्ति होने के कारण बीज-वृक्ष के साथ मानव-जीवन का ओतप्रोत संबंध है। यह उल्लेखनीय है कि मनुष्य परिवेश के रुप में बीज को प्रभावित करता है और बीज से प्रभावित भी होता है। कृषि का इतिहास बीज को प्रभावित करने के इतिहास के रुप में समझा जा सकता है।
मानव-जीवन की प्रक्रियाओं को स्थूल रुप में हम दो भागों में बाँट सकते हैं (रेखाचित्र-८)।
१. भौतिक प्रक्रिया
२. मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया
२.१. भौतिक प्रक्रिया
मानव-जीवन की भौतिक प्रक्रिया से भौतिक परिवेश की रचना होती है। मनुष्य की भौतिक प्रक्रिया के मूल में भूख और रक्षा की मूल प्रवृत्तियाँ हैं। भूख और रक्षाप्रवृत्ति ने मनुष्य की जीवन-यात्रा को प्रेरित और उत्तेजित किया है। मनुष्य का जीवन-संघर्ष भूख से प्रेरित है और इसी के निमित्त उसने धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक की यात्रा की है। भौतिक प्रक्रिया के फलस्वरुप मनुष्य भोजन, रक्षा और आच्छादन-प्रणाली का विकास करता है। ये प्रणालियाँ ही इतिहास में सभ्यता कही जाती हैं। इस अध्याय में हम अध्ययन कर रहे हैं कि धरती और बीज-संबंध ने मनुष्य-जीवन को भौतिक रुप से किस प्रकार प्रभावित किया है।
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