'काबा की काशी' तथा 'राम की रहीम' हो जाना कहकर कबीर स्पष्ट रूप से क्या संदेश देना चाहते हैं?
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O 'काबा की काशी' तथा 'राम की रहीम' हो जाना कहकर कबीर स्पष्ट रूप से क्या संदेश देना चाहते हैं?
► 'काबा की काशी' तथा 'राम की रहीम' हो जाना कहकर कबीर स्पष्ट रूप से कहना चाहते हैं कि चाहे कोई धर्म हो, सबका उद्देश्य केवल ईश्वर की प्राप्ति ही है। ईश्वर एक है, केवल उसको मानने के तरीके अलग-अलग हैं। कबीर कहते हैं...
काबा फिरि कासी भया रामहि भया रहीम
मोट चून मैदा भया रहा कबीरा जीम।
अर्थात काबा ही बदलकर काशी हो जाती है और राम ही रहीम बन जाते हैं। ये बिल्कुल उसी तरह जिस तरह आटे को और ज्यादा पीसने से वह मैदा बन जाता है। दोनों ही गेहूँ से बनते हैं और गेहूँ के ही रूप हैं। उसी तरह काशी जाओ या काबा जाओ। राम की पूजा करो या अल्लाह की इबादत, सब एक ही है। हर हाल में आप ईश्वर की उपासना ही करोगे।ईश्वर केवल एक ही है, उसे हम राम के रूप में पूजते हैं, तो अल्लाह के रूप में इबादत करते हैं। उसको पूजने के लिए काशी जाते हैं या उसकी इबादत करने के लिए काबा जाते हैं।
कबीर के कहने का मूल भाव यह है कि सारे धर्म एक ही हैं। सारे धर्मों का मकसद एक ही है, ईश्वर की प्राप्ति।
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