'का बारखा जिते कोन सुखाने'
निबंध
Answers
Answered by
1
लसीदास ने रामायण में लिखा है “का बरखा, जब कृषि सुखाने। समय चुके फिर का पछताने”। कमजोर पड़े मॉनसून और बारिश की कमी से देश भर में इस समय हाहाकार की नौबत उत्पन्न हो गई है। मॉनसून में कमी के चलते सिर्फ देश भर के किसान ही नहीं बल्कि पूरा तंत्र परेशान हैं। अगर ‘इंद्रदेव’ इसी तरह रूठे रहे तो पहले से खराब अर्थव्यवस्था का हाल और बुरा हो सकता है। उत्तर, मध्य और दक्षिण भारत में मॉनसून की अब तक की चाल से किसानों के माथे पर चिंता की गहरी रेखाएं खिंच गई हैं। हालांकि, किसान अब भी आसमां की ओर टकटकी लगाए है, लेकिन जो नुकसान अब तक हो चुका है, उसकी भरपाई अब शायद ही संभव है।
यह विदित है कि देश की खुशहाली अब भी मॉनसून पर ही पूरी तरह निर्भर है। इसकी कमी से न सिर्फ अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, बल्कि यह देश और देशवासियों के लिए भी खतरा साबित हो सकती है। मॉनसून इतना महत्वपूर्ण है कि बीते माह तत्कालीन वित्त मंत्री और अब देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखजी ने भी मॉनसून को देश का `वास्तविक वित्त मंत्री` कह डाला था। कृषि के लिहाज से मॉनसून की खासी अहमियत है क्योंकि देश में अभी भी 40 प्रतिशत कृषि योग्य क्षेत्र सिंचाई के अंतर्गत है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान करीब 15 प्रतिशत है। दरअसल भारत की 60 फीसदी खेती मॉनसून पर निर्भर करती है और जीडीपी में खेती के अहम योगदान के चलते बारिश, अर्थव्यवस्था और रोजगार का आपस में परस्पर संबंध होता है।
सवाल उठना लाजिमी है कि आजादी के 65 साल में भी आखिर देश क्यों मॉनसून और खासकर दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून पर इतना निर्भर है। देश में कुल बारिश में जहां मॉनसून का 75 फीसदी योगदान है, वहीं सिंचाई के लिए कुल पानी की जरूरत का आधा इसी से हासिल होता है। हम सब मानसून का पीछा करते हैं, लेकिन इससे निकलने कोई कारगर उपाय नहीं है। यदि बारिश होती है, तो धरती पर सब कुछ सुहाना होता है। लेकिन यदि यह नहीं होता है, तो आप सिवाय सूखा राहत बांटने के कुछ और नहीं करते। मॉनसून पर ही टिके रहने से आखिर कब तक निजात मिल पाएगी।
अर्थव्यऔवस्थाॉ के लिहाज से देखें तो बारिश होने की स्थिति में मौद्रिक नीति काम करती है। सब कुछ अच्छा रहता है। यदि बारिश नहीं होती है, तो चिंता की बात है। गौर हो कि देश में सलाना लगभग 4000 अरब घन मीटर बारिश होती है। इसका तीन चौथाई हिस्सा दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून से मिलता है। लेकिन दुखद यह है कि इसमें से भी सिर्फ 1,100 अरब घन मीटर का ही उपयोग हो पाता है। शेष पानी बह जाता है।
यह विदित है कि देश की खुशहाली अब भी मॉनसून पर ही पूरी तरह निर्भर है। इसकी कमी से न सिर्फ अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, बल्कि यह देश और देशवासियों के लिए भी खतरा साबित हो सकती है। मॉनसून इतना महत्वपूर्ण है कि बीते माह तत्कालीन वित्त मंत्री और अब देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखजी ने भी मॉनसून को देश का `वास्तविक वित्त मंत्री` कह डाला था। कृषि के लिहाज से मॉनसून की खासी अहमियत है क्योंकि देश में अभी भी 40 प्रतिशत कृषि योग्य क्षेत्र सिंचाई के अंतर्गत है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान करीब 15 प्रतिशत है। दरअसल भारत की 60 फीसदी खेती मॉनसून पर निर्भर करती है और जीडीपी में खेती के अहम योगदान के चलते बारिश, अर्थव्यवस्था और रोजगार का आपस में परस्पर संबंध होता है।
सवाल उठना लाजिमी है कि आजादी के 65 साल में भी आखिर देश क्यों मॉनसून और खासकर दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून पर इतना निर्भर है। देश में कुल बारिश में जहां मॉनसून का 75 फीसदी योगदान है, वहीं सिंचाई के लिए कुल पानी की जरूरत का आधा इसी से हासिल होता है। हम सब मानसून का पीछा करते हैं, लेकिन इससे निकलने कोई कारगर उपाय नहीं है। यदि बारिश होती है, तो धरती पर सब कुछ सुहाना होता है। लेकिन यदि यह नहीं होता है, तो आप सिवाय सूखा राहत बांटने के कुछ और नहीं करते। मॉनसून पर ही टिके रहने से आखिर कब तक निजात मिल पाएगी।
अर्थव्यऔवस्थाॉ के लिहाज से देखें तो बारिश होने की स्थिति में मौद्रिक नीति काम करती है। सब कुछ अच्छा रहता है। यदि बारिश नहीं होती है, तो चिंता की बात है। गौर हो कि देश में सलाना लगभग 4000 अरब घन मीटर बारिश होती है। इसका तीन चौथाई हिस्सा दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून से मिलता है। लेकिन दुखद यह है कि इसमें से भी सिर्फ 1,100 अरब घन मीटर का ही उपयोग हो पाता है। शेष पानी बह जाता है।
Similar questions