Hindi, asked by sajjanvermasajjanver, 7 hours ago

कांग्रेश की दो विचारधाराएं कौन सी the के बारे में लिखें​

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Answered by Omarnav
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Explanation:

नरम दल की शुरुआत भारत की आजादी से पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दो खेमों में विभाजित होने के कारण हुई l जिसमें एक खेमें के समर्थक बाल गंगाधर तिलक थे और दूसरे खेमें के मोतीलाल नेहरू l इनमें सरकार बनाने को लेकर मतभेद था। मोतीलाल नेहरू चाहते थे की भारत की सरकार अंग्रेज़ो के साथ कोई संयोजक सरकार बने जबकि गंगाधर तिलक कहते थे की अंग्रेज़ों के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत की जनता को धोखा देना होगा l इस मतभेद के कारण लोकमान्य तिलक कांग्रेस से निकल गए और उन्होंने गरम दल बनाया l

शुरुआती दौर में नरमदल ने बड़े ही सीधे और सुलझे तरीके से अपने कार्यक्रम को आगे बढ़ाया l पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य था जनता को राजनीती तौर पर प्रशिक्षित करना साथ ही राष्ट्रीय स्तर के प्रश्नों पर जन जागृति फैलाना l यह कार्य एक संगठन और देश के स्तर पर उन्होंने बखूबी किया क्युकि राष्ट्र - निर्माण की लम्बी प्रकिर्या के प्रति वे सचेत रहे l परन्तु नरमदल पंथी अपने समय में कोई ठोस उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाए l उन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध गुस्सा तो ज़रूर जगाया लेकिन अपनी कमजोरियों के कारण राष्टये स्तर पर एक प्रभावी आंदोलन खड़ा करने में असफल रहे l

नरमदल की असफलता का कारण उनका आपसी अंतर्विरोध भी था जिसने उनके आधार को फैलने से रोका l वास्तव में ये उच्च सामाजिक पृष्टभूमि के संपत्ति शाला और अभिजात वर्ग के अंग्रेजीभाषी लोग थे l जिसमें वकील, उधोयोगपति, भूस्वामी, चिकित्सक, पत्रकार, शिक्षार्थी और सुधारक शामिल थे l भूस्वामी वर्ग के लोग कभी भी किसानों के मुद्दे पर अपनी स्पष्ट राय नहीं रख पाते थे l प्रतिनिधियों और औद्योगिक वर्ग से सम्बन्ध होने के कारण नरमपंथी स्त्रियों और बच्चों के काम की दशाओं, फैक्ट्री मजदूर की स्थिति और उनके अधिकार आदि विषयों पर तथा खदान मजदूर और मजदूर समर्थक नीतियों का खुलकर समर्थन करने से कतराते थे l अनुपातिक दृष्टि से भी स्वर्ण हिंदुयों का कांग्रेस पर प्रभुत्व बना रहा l मुसलमानो का प्रतिनिधित्व ना के बराबर था जिसका ख़मयाज़ा नरमदल को भुगतना पड़ा l यही कारण था कि 1888 में इस नियम की घोषणा की गयी की अगर हिन्दू या मुस्लमान प्रतिनिधयों का भारी बहुमत किसी प्रस्ताव पर आपत्ति करेगा तो वह प्रस्ताव पारित नहीं होगा l

आम जनता को भी इन नरमपंथियों का कम ही भरोसा था, इसका कारण एक तो नरमपंथी आम जनता के बीच के लोग नहीं थे और दूसरा तकनिकी, आर्थिक या संवेधानिक मामलों की समझ आम जानता को नहीं थी l लेकिन जनमानस की इन भवनाओं को कुरेदने का अर्थ है जनता से नेताओं अलगाव एवं दुराव l

नरमपंथियों ने केवल सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक पिछड़ेपन को ही देखा, उनके अंदर छिपी ताकत, शौर्य तथा बलिदान की क्षमता को नहीं पहचाना जिसकी काफ़ी ज़रूरत थी l लेकिन इसके बावजूद नरमपंथियों की उपलब्धियों को भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता है l उन्होंने तकनिकी भारतीय समाज को नेतृत्व प्रदान किया l सामान्य हित के सिद्धांतों पर आम सहमति बनाने से लेकर इसकी जागृति फैलाने तक का श्रेय नरमपंथियों को ही जाता हैl उन्होंने इस बात का सफल प्रचार की सारे लोग भारत के ही नागरिक है और हमारा एक ही शत्रु है, अंग्रेज़ी शाशन l

इन्हीं उदारवादी नेताओं ने 1885 ई. से 1905 ई. तक कांग्रेस का मार्गदर्शन किया। इसलिए भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में इस काल को उदारवादी युग कहा जाता है।

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