काका कालेलकर ने गोदावरी नदी को दक्षिण गंगा क्यों कहा?
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गंगा और गोदा एक ही हैं। दोनों के माहात्म्य में जरा भी फर्क नहीं है। फर्क करना ही हो तो इतना ही कि कलिकाल के पाप के कारण गंगा का माहात्म्य किसी समय कम हो सकता है; किंतु गोदावरी का माहात्म्य कभी कम हो नहीं सकता। श्रीरामचंद्र के अत्यंत सुख के दिन इस गोदावरी के तीर पर ही बीते थे और जीवन का दारुण आघात भी उन्हें यहीं सहना पड़ा था। गोदावरी का दक्षिण की गंगा है।
कृष्णा और गोदावरी इन दो नदियों ने दो विक्रमशाली महाप्रजाओं का पोषण किया है। यदि हम कहें कि महाराष्ट्र का स्वराज्य और आंध्र का साम्राज्य इन्हीं दो नदियों का ऋणी है, तो इसमें जरा-सी भी अत्युक्ति नहीं होगी। साम्राज्य बने और टूटे, महाप्रजाएं चढ़ीं और गिरी, किंतु इस ऐतिहासिक भूमि में ये दो नदियां अखंड बहती ही जा रही हैं। ये नदियां भूतकाल के गौरवशाली इतिहास की जितनी साक्षी है, उतनी ही भविष्यकाल की महान आशाओं की प्रेरक भी हैं। इनमें भी गोदावरी का माहात्म्य कुछ अनोखा ही है। वह जितनी सलिल-समृद्ध है उतनी ही इतिहास-समृद्ध भी हैं।
गोपाल-कृष्ण के जीवन में जिस तरह सर्वत्र विविधता-ही-विविधता भरी हुई है, एक-सा उत्कर्ष-ही-उत्कर्ष दिखाई देता है, उसी तरह गोदावरी के अति दीर्घ प्रवाह के किनारे सृष्टि-सौंदर्य की विविधता और विपुलता भरी पड़ी है। ब्रह्मदेव की एक कल्पना में से जिस तरह सृष्टि का विस्तार होता है, वाल्मीकि की एक कारुण्यमयी वेदना में से जिस तरह रामायणी सृष्टि का विस्तार हुआ है, उसी तरह ˜यंबक के पहाड़ के कगार से टपकती हुई गोदावरी में से ही आगे जाकर राजमहेंद्री की विशाल वारि-राशि का विस्तार हुआ है।
सिंधु और ब्रह्मपुत्र को जिस तरह हिमालय का आलिंगन करने की सूझी, नर्मदा और ताप्ति को जिस तरह विंध्या-सतपुड़ा को पिघलाने की सूझी, उसी तरह गोदावरी और कृष्णा को दक्षिण के उन्नत प्रदेश को तरह करके उसे धन-धान्य से समृद्ध करने की सूझी है। पक्षपात से सह्याद्रि पर्वत पश्चिम की ओर ढल पड़ा, यह मानो उन्हें पसंद नहीं आया। ऐसा ही जान पड़ता है कि उसे पूर्व की ओर खींचने का अखंड प्रयत्न ये दोनों नदियां कर रही हैं।
इन दोनों नदियां का उद्गम-स्थान पश्चिमी समुद्र से 50-75 मील से अधिक दूर नहीं है, फिर भी दोनों 800-900 मील की यात्रा करके अपना जलभार या कर-भार पूर्व-समुद्र को ही अर्पण करती हैं और इस कर-भार का विस्तार भी कोई मामूली नहीं है। उसके अंदर सारा महाराष्ट्र देश आ जाता है, हैदराबाद और मैसूर के राज्यों का अंतर्भाव होता है, और आंध्र देश तो सारा-का-सारा उसी में समा जाता है। मिश्र संस्कृति की माता नील नदी हमारी गोदावरी के सामने कोई चीज ही नहीं है।
त्रयंबक के पास पहाड़ की एक बड़ी दीवार में से गोदा का उद्गम हुआ है। गिरनार की ऊंची दीवार पर से भी त्रयंबक गांव से जो चढ़ाई शुरू होती है, वह गोदामैया की मूर्ति के चरणों तक चलती ही रहती है। इससे भी ऊपर जाने के लिए बाई और पहाड़ में विकट सीढि़यां बनाई गई हैं। इस रास्ते मनुष्य ब्रह्मगिरि तक पहुंच जाता है किंतु वह दुनिया ही अलग है।
गोदावरी के उद्गम-स्थान से जो दृश्य दीख पड़ता है वही हमारे वातावरण के लिए विशेष अनुकूल है। महाराष्ट्र के तपस्वियों और राजाओं ने समान भाव से इस स्थान पर अपनी भक्ति उड़ेल दी है। कृष्णा के किनारे बाई, सातारा और गोदा के किनारे नासिक तथा पैठण महाराष्ट्र की सच्ची सांस्कृतिक राजधानियां हैं, किंतु गोदावरी का इतिहास तो सहन-वीर रामचंद्र और दु:खमूर्ति सीतामाता के वृतांत से ही शुरू होता है।
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