किन आधारों पर हम इतिहास की घटनाओं की तिथि निश्चित करते हैं
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Explanation:
भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने की प्रक्रिया में पाश्चात्य विद्वानों ने इतिहास को इतना बदल या बिगाड़ दिया कि वह अपने मूल रूप को ही खो बैठा। इसके लिए जहाँ कम्पनी सरकार का राजनीतिक स्वार्थ बहुत अंशों तक उत्तरदायी रहा, वहीं भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखने के प्रारम्भिक दौर के पाश्चात्य लेखकों की शिक्षा-दीक्षा,रहन-सहन, खान-पान आदि का भारतीय परिवेश से एकदम भिन्न होना भी एक प्रमुख कारण रहा। उनके मन और मस्तिष्क पर अपने-अपने देश की मान्यताओं, धर्म की आस्थाओं और समाज की भावनाओं का प्रभाव पूरी तरह से छाया हुआ था। उनकी सोच एक निश्चित दिशा लिए हुए थी, जो कि भारतीय जीवन की मान्यताओं, भावनाओं, आस्थाओं और विश्वासों से एकदम अलग थी। व्यक्ति का लेखन-कार्य उसकेविचारों का मूर्तरूप होता है। अतः भारतीय इतिहास का लेखन करते समय पाश्चात्य इतिहास लेखकों/विद्वानों की मान्यताएँ, भावनाएँ और आस्थाएँ उनके लेखन में पूर्णतः प्रतिबिम्बित हुई हैं।
पाश्चात्य विद्वानों को उनकी राजनीतिक दृष्टि से विजयी जाति के दर्प ने, सामाजिक दृष्टि से श्रेष्ठता की सोच ने, धार्मिक दृष्टि से ईसाइयत के सिद्धान्तों के समर्थन ने और सभ्यता तथा संस्कृति की दृष्टि से उच्चता के गर्व ने एक क्षण को भी अपनी मान्यताओं तथा भावनाओं से हटकर यह सोचने की स्थिति में नहीं आने दिया कि वे जिस देश, समाज औरसभ्यता का इतिहास लिखने जा रहे हैं, वह उनसे एकदम भिन्न है। उसकी मान्यताएँ और भावनाएँ, उसके विचार और दर्शन, उनकी आस्थाएँ और विश्वास तथा उसके तौर-तरीके, उनके अपने देशों से मात्र भिन्न ही नहीं, कोसों-कोसों दूर भी हैं।
इस दृष्टि से यह भी उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य जगत सेआए सभी विद्वान ईसाई मत के अनुयायी थे। अपनी धार्मिक मान्यताओं और विश्वासोंतथा अपने देश और समाज के परिवेश के अनुसार हर बात को सोचना और तदनुसार लिखना उनकी अनिवार्यता थी। ईसाई धर्म की इस मान्यता के होते हुए कि ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण ईसा से 4004 वर्ष पूर्वकिया था, उनके लिए यह विश्वास कर पाना कि भारतवर्ष का इतिहास लाखांे-लाखों वर्ष प्राचीन होसकता है, कठिन था, उनके पूर्वज ईसा पूर्व के वर्षोंमें जंगलों में पेड़ों की छाल पहनकर रहते थे तो वे कैसे मान सकते थे कि भारत में लाखों-लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य अत्यन्त विकसित स्थिति में रहता था ? वे मांसाहारी थे, अतः उनके लिए वह मान लेना कि आदिमानव मांसाहारी ही रहा होगा, स्वाभाविक ही था। इस स्थिति में वे यह कैसे मान सकते थे कि प्रारम्भिक मानव निरामिषभोजी रहा होगा ? कहने का भाव है कि भारतीय इतिहास की हर घटना, हर तथ्य और हर कथ्य को वे अपनी ही विचार-कसौटी पर कसकर उसके पक्ष में और विपक्ष में निर्णय लेने के लिए प्रतिबद्ध थे।
वस्तुतः पाश्चात्य विद्वानों का मानसिक क्षितिज एक विशिष्ट प्रकार के सांचे में ढला हुआ था, जिसके फलस्वरूप उनकी समस्त सोच और शोध का दायरा एकसंकीर्ण सीमा में आबद्ध हो गया था। परिणामतः उनके चिन्तन की दिशा और कल्पना की उड़ान उस दायरे से आगे बढ़ ही नहीं सकी और वे लोग एक प्रकार की मानसिक जड़ता से ग्रस्त हो गए। इसीलिए उनका शोध कार्य विविधता पूर्ण होते हुए भी अपने मूल में संकुचित और विकृत रहा। फलतः उन्होंने भारत के ऐतिहासिक कथ्यों को अमान्य करके उसके इतिहास-लेखन के क्षेत्र के चारों ओर अपनी-अपनी मान्यताओं, भावनाओं और आस्थाओं के साथ-साथ अपने निष्कर्षों का एक ऐसा चक्रब्यूह बना दिया कि उससे निकल पाना आगे आने वाले विद्वानों के लिए संभव ही नहीं हो सका, जो उसमें एक बार फंसावह अभिमन्यु की तरह फंसकर ही रह गया। अधिकांश भारतीय इतिहासकार, पुरातत्त्ववेत्ता, भाषाविद्, साहित्यकार, चिन्तक और विवेचक भी इसी के शिकार हो गए। जबकि यह एक वास्तविकता है कि भारत के इतिहास को आधुनिक रूप में लिखते समय पाश्चात्य लेखकों ने पुष्ट से पुष्ट भारतीय तथ्यों कोतो अपने बेबुनियाद तर्कों द्वारा काटा है किन्तु अपनी और अपनों के द्वारा कही गई हर अपुष्ट से अपुष्ट, अनर्गल से अनर्गल और अस्वाभाविक से अस्वाभाविक बात को भी सही सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया है। इसके लिए उन्होंने विज्ञानवाद, विकासवाद आदि न जाने कितने मिथ्या सिद्धान्तों और वादों की दुहाई दी है। इसके परिणामस्वरूप भारत के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति में जो बिगाड़ पैदा हुआ, उसकी उन्होंने रत्ती भर भी चिन्ता नहीं की। उक्त आधारों पर भारत के इतिहास को कैसे-कैसे बिगाड़ा गया, इसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं -
Answer:
prachin smay ki ghtnao k adhar pr