CBSE BOARD X, asked by kavitagaikar427, 4 months ago

क) निम्नलिखित किसी एक विषय पर निबंध लिखिए।
...पेड.
की आत्मकथा​

Answers

Answered by singhrajvansh30
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Answer:

मैं वृक्ष हूँ। मेरे हर रूप पर कोई-न-कोई फूल अवश्य खिला करता है। यह अलग बात है कि खिलने वाला कोई फूल तो मधुर सुगन्ध से भरा-पूरा रहा करता है, जबकि कोई दुर्गन्ध और कोई निर्गन्ध हुआ करता है। मौसम के अनुसार विकास भी सभी का अवश्य हुआ करता है। सभी के रंग भी अपने-अपने हुआ करते हैं। एक और बात भी ध्यान देने वाली है और वह यह कि मेरे किसी जाति के भाई के तन पर काँटों की भरमार रहा करती है, जबकि बहुतों पर मेरे समान कतई कोई काँटा आदि नहीं रहा करता। पत्तों के आकार भी प्रायः सभी के अपने-अपने और एक-दूसरे से अलग हुआ करते हैं। इसी तरह कुछ वृक्ष मधुर रसाल फलों से लदते तो अवश्य हैं; पर वे मनुष्य तो क्या पक्षियों तक के खाने के काबिल नहीं हुआ करते।वृक्ष, पेड, दरख्त, जैसे कई नामों से पुकारा जाता है, मुझे। याँ मेरी सत्ता व्यापक है। सारे संसार में मेरा अस्तित्व विद्यमान है। मेरी जातियाँ तो अनगिनत हैं ही, रंग-रूप और आकार-प्रकार भी अनेक हैं। मेरा कोई भाई बहुत मोटे मद-काठ (तने) वाला हुआ करता है और कोई पतले वाला। इसी तरह किसी का शरीर और बनावट खूब फैलावदार हुआ करती है और किसी की अत्यन्त सिमटे हुए। कोई छोटा-सा होता है और कोई सीधा और ऊँचा तना हुआ, लगता है जैसे आकाश को छू रहा हो।वृक्ष, पेड, दरख्त, जैसे कई नामों से पुकारा जाता है, मुझे। याँ मेरी सत्ता व्यापक है। सारे संसार में मेरा अस्तित्व विद्यमान है। मेरी जातियाँ तो अनगिनत हैं ही, रंग-रूप और आकार-प्रकार भी अनेक हैं। मेरा कोई भाई बहुत मोटे मद-काठ (तने) वाला हुआ करता है और कोई पतले वाला। इसी तरह किसी का शरीर और बनावट खूब फैलावदार हुआ करती है और किसी की अत्यन्त सिमटे हुए। कोई छोटा-सा होता है और कोई सीधा और ऊँचा तना हुआ, लगता है जैसे आकाश को छू रहा हो।मैं सबको कुछ न कुछ देता हूं। मैं लोगो से कुछ भी नहीं लेता,मैं जब तक भी जीवीत रहूंगा तब तक लोगों की सेवा करता रहूंगा,लोगों को रोग मुक्त करता रहूंगा. मेरी पेड़ों की जड़ें,पत्तियां लोगों के रोगों को भी नष्ट कर देती हैं और फिर भी लोग मुझे नष्ट करने से नहीं चूकते, मेरी लकड़ियों को बिना वजह तोड़ने से नहीं चूकतेमेरे इस खिले हुए, झबरेदार और छतरी जैसे किन्तु हरे-भरे स्वरूप को देख कर आप मुग्ध हो रहे हैं न; मेरी खूब प्रशंसा भी कर रहे हैं। पर याद रखिए, प्रकृति माँ से ऐसा सघन-सुन्दर स्वरूप पाने के लिए मुझे बड़ी साधना करनी पड़ी और कष्टपूर्ण जीवन बिताना पड़ा है। यह तो मैं नहीं जानता कि इस एकान्त वन में मेरा रोपण किसने किया था-लगता है, माँ पृथ्वी और प्रकृति ने ही ऐसा किया होगा; पर जब मैं बीज-रूप में मिट्टी के अन्दर धरती का ताप सहन करता, भीतर-ही-भीतर चलने वाली कई तरह की रासायनिक क्रियाओं के प्रभाव से प्रभावित होता हुआ, कभी पानी और शीत से काँपता हुआ सड़-गल रहा था; तब लगता था कि जैसे मेरा अस्तित्व एकदम मिट्टी में मिल कर समाप्त ही हो जाएगा। लेकिन एक दिन सहसा धरती का आँचल फूटा और मैं एक नन्हें अंकुर के रूप में सिर उठाए बाहर आ गया। बाहर निकलने पर ताजी हवा के झोंके के लगने से मेरा दम-में-दम आया और मैं धीरे-धीरे बड़ा होने लगा, प्रगति और विकास करते हुए ऊपर उठने लगा। जब मैं लगभग डेढ़-दो मीटर तक ऊपर उठ गया तब मेरे कन्धों से बाहे अर्थात् डालियाँ फूट कर ऊपर उठने तथा फैलने लगी। इस प्रकार विकास की प्रक्रिया में पड़ कर मेरा तन मन रस सिक्त होकर फैलता गया। फिर ऋतु के प्रभाव से मुझ पर फल-फूल भी आने लगे। फल उगने पर पक्षियों की चोचें तो सहनी ही पर्डी, आस-पास के देहातों से आने वाले बच्चों के मारे पत्थर भी सहन करने पड़े। अब तो यह प्रतिवर्ष का क्रिया-कलाप बन चुका है। मैं समझने और मानने लगा हूँ कि मेरे जीवन की वास्तविकता और सफलता-सार्थकता भी इसी सब झेलने-सहने में ही है।मेरे इस खिले हुए, झबरेदार और छतरी जैसे किन्तु हरे-भरे स्वरूप को देख कर आप मुग्ध हो रहे हैं न; मेरी खूब प्रशंसा भी कर रहे हैं। पर याद रखिए, प्रकृति माँ से ऐसा सघन-सुन्दर स्वरूप पाने के लिए मुझे बड़ी साधना करनी पड़ी और कष्टपूर्ण जीवन बिताना पड़ा है। यह तो मैं नहीं जानता कि इस एकान्त वन में मेरा रोपण किसने किया था-लगता है, माँ पृथ्वी और प्रकृति ने ही ऐसा किया होगा; पर जब मैं बीज-रूप में मिट्टी के अन्दर धरती का ताप सहन करता, भीतर-ही-भीतर चलने वाली कई तरह की रासायनिक क्रियाओं के प्रभाव से प्रभावित होता हुआ, कभी पानी और शीत से काँपता हुआ सड़-गल रहा था; तब लगता था कि जैसे मेरा अस्तित्व एकदम मिट्टी में मिल कर समाप्त ही हो जाएगा। लेकिन एक दिन सहसा धरती का आँचल फूटा और मैं एक नन्हें अंकुर के रूप में सिर उठाए बाहर आ गया। बाहर निकलने पर ताजी हवा के झोंके के लगने से मेरा दम-में-दम आया और मैं धीरे-धीरे बड़ा होने लगा, प्रगति और विकास करते हुए ऊपर उठने लगा। जब मैं लगभग डेढ़-दो मीटर तक ऊपर उठ गया तब मेरे कन्धों से बाहे अर्थात् डालियाँ फूट कर ऊपर उठने तथा फैलने लगी। इस प्रकार विकास की प्रक्रिया में पड़ कर मेरा तन मन रस सिक्त होकर फैलता गया। फिर ऋतु के प्रभाव से मुझ पर फल-फूल भी आने लगे।

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