कौन सही है- निःस्वार्थ, निस्वार्थ या निस्स्वार्थ- और क्यों?
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निस्वार्थ सेवा ही असली सेवा है
10 years ago डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
– डॉ0 कुलदीप चंद अग्निहोत्री
मध्यकालीन भारतीय दश गुरु परम्परा के आठवें गुरु श्री हरकिशन जी के जीवन का एक प्रसंग है। उनके जीवन काल में प्लेग का प्रकोप हुआ था। प्लेग अपने आप में भयावह बीमारी है और उन दिनों तो प्लेग को मृत्यु का पर्यायवाची ही माना जाता था। लोग अपने घर बार छोडकर भाग रहे थे। जो रोग की चपेट में आ गए थे उनके सगे सम्बंधी उनको वैसी ही हालत में छोडकर पलायन कर रहे थे। मृत्यु से सभी भयभीत रहते हैं। चारों ओर हाहाकार था। रोगी निःसहाय और निराश्रित पडे थे। श्री हरकिशन जी का रोगियों की पुकार से हृदय विचलित हुआ। किसी दूसरे को संकट में देखकर कैसे भागा जा सकता है? वह संकट चाहे आसन्न मृत्यु का संकट ही क्यों न हो। गुरुजी दिन रात रोगियों की सेवा -सुश्रूषा में जुट गए। आस -पास के लोग घबराए। कही लोग गुरु जी को ही न पकड ले? परन्तु गुरु जी को अपनी चिंता नहीं थी। उनको चिंता आर्तनाद कर रहे उन रोगियों की थी जिनको पानी पिलाने वाला भी नहीं बचा था। उनकी यह सेवा निस्वार्थ भाव की सेवा थी। शास्त्रों में जिक्र है कि निस्वार्थ भाव की सेवा ही प्रभु भक्ति का उत्कृष्ट नमूना है। जो सेवा स्वार्थ भाव से की जाए तो स्वार्थपूर्ती होते ही उस सेवा का फल भी समाप्त हो जाता है। गुरु जी इसी निस्वार्थ सेवा के जीवन्त प्रतीक थे।