काननि दै अँगुरी रहिबो जबहीं मुरली धुनि मंद बजैहै।
मोहनी तानन सों रसखानि अटा चढ़ि गोधन गैहै तौ गैहै॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि काल्हि कोऊ कितनो समुझैहै।
माइ री वा मुख की मुसकानि सम्हारी न जैहै, न जैहै, न जैहै॥
सवैये मे कौन-सी भाषा है ?
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इस इस कविता में गोपिया अपनी दुर्दशा को बताते हुए कहती हैं कि वह कितनी बार अपने मन में ठान ले कि वह कृष्ण की धुन पर उनके पास नहीं जाएगी किंतु जब भी कृष्ण अपनी बांसुरी बजाते हैं उसकी मधुर धुन सुनकर गोपियां बिना सम ले भागी भागी सी अपने अटारी पर चढ़ी उन्हें देखने लगती हैं और जब भी उनके मासूम से चेहरे को देखती है तो सभी कुछ भूल जाते हैं और खुद को संभाल नहीं पाती है
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