(क) प्राणी-हिंसा को कैसे रोकें?
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फैशन एवं सौंदर्य हेतु प्राणी हिंसा
मनुष्य अपने को खूबसूरत दिखाने के लिए जाने-अनजाने अनेक सौंदर्य प्रसाधनों और फैशन की वस्तुओं के बनाने में भी अनेक जीवों की हत्या कर रहा है – जैसे फर की टोपी पहनते हुए मनुष्य शायद यह नहीं जानता कि यह कराकुल मेमने को भेड़ के गर्भ से ज़बरदस्ती निकालकर उसकी खाल से बनी है। उसी भांति, वह यह भी नहीं जानता कि कई शैंपू, आफ्टर शेव लोशन आदि सौंदर्य-प्रसाधनों की जांच के लिए खरगोशों पर क्या-क्या निर्दय प्रयोग होते हैं।
अहिंसा भारत लगभग पर्याय शब्द रहे हैं, आज की बात अलग है। प्रदूषण प्रच्छन्न हिंसा है, इसमें जो लोग भागीदार हैं, वे जाने-अनजाने हिंसक हैं। हम जो वस्त्र पहनते हैं, उनमें कहां, कौन-से निरीह प्राणी ने अपनी सांस तोड़ी, इसका एहसास हम नहीं कर पाते। रेशम के एक मीटर कपड़े में कितने रेशम-कीटों का मरघट है, इसे शायद हम नहीं जानते। हम ऐलोपैथिक दवाई लेते हैं, किंतु नहीं जानते कि कितने निरीह जीवों की जान लेकर वह अस्तित्व में आई है। यह कौन-सा न्याय है कि कईयों के प्राण लेकर हम अपने शौक पूरे करें, अपने प्राणों की रक्षा करें।
मांसाहार के लिए प्राणी हिंसा
दुनिया में सबसे अधिक प्राणि हिंसा होती है, मनुष्य के स्वाद के लिए। हम भारतीय इस बात को जानते हैं कि जीवन एक निरंतर प्रक्रिया है, हमारा चोला बदलता रहता है, परंतु आत्मतत्व वही रहता है। ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’। निश्चित ही मांसाहार ऐसा पाप है, जिसे व्यक्ति जानबूझकर करता है। वैज्ञानिक तथ्य भी है कि क्रिया की प्रतिक्रिया बराबर परिमाण में होगी ही। यदि हम आज किसी प्राणी का मांस-भक्षण करते हैं तो निश्चित मानिए इन्हीं परिस्थितियों से हमें भी गुजरना पड़ेगा और ये परिस्थितियां कितनी भयावह और दुःखदायी होंगी? यह समझा जा सकता है कि यदि आपके शरीर में एक खरोंच भी आ जाती है, तो कितनी पीड़ा का अनुभव होता है।
मांसाहारी बंधुओं, आप एक बार बूचड़खाने में जाकर पशुओं को अवश्य देखें, कैसे-कैसे त्रास और यंत्रणापूर्वक इन्हें कत्ल किया जाता है। देखें उन मूक प्राणियों के चेहरे के भावों को स्वयं की आंखों से। जो देश, पेड़-पौधों को प्रणाम करता रहा हो, अतीत में समृद्ध रहा हो, उसमें कभी दूध की नदियां बहीं हों, वही आज अनेक प्रकार की आपदाओं, व्याधियों एवं अभाव की स्थिति से त्रस्त है। अहिंसा हमारे विकास का अपरिहार्य सुफल रही है। पर्यावरण-प्रदूषण हिंसा की देन है, अहिंसा प्रदूषण मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है।
भारत में सबसे पहला कत्लखाना कलकत्ता में अंग्रेजों ने शुरू किया था। आज भारत के लगभग 2 नगरों में आधुनिक स्तर पर पशुबंध-स्थल बनाए गए है, जहां प्रतिदिन लाखों पशुओं का वध किया जाता है। इससे उन नगर की नगरपालिकाओं को लाखों रूपए कर के रूप में प्राप्त होते हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में 10 करोड़ पालतू पशु प्रति वर्ष काटे जा रहे हैं।
एक अनुमान के प्राप्ति अनुसार स्वतंत्रता के समय भारत का पशु-धन 80 लाख से 9 करोड़ के लगभग था। आज यह घटकर 15 लाख के आस-पास रह गया है। यह हमारे धर्म-प्रधान देश की सरकारों और नागरिकों का प्राणी हिंसा का विकास है। इसके अलावा मुर्गे-मुर्गियों, बत्तख, खरगोश, हिरण, भेड़, ऊंट, सूअर इत्यादि तथा पक्षियों की असंख्य प्रजातियों एवं मछलियों की तो गिनती करना ही संभव नहीं, असंख्यात ही कही जा सकती है।
मजे की बात तो यह कि इन शासकीय कत्लखानों को सरकार की ओर से एक लाख करोड़ की सब्सिडी देकर देश का आर्थिक नुकसान भी किया जा रहा है। आप जानते होंगे कि सन् 1857 की क्रांति का प्रारंभ का प्रारंभ कारतूसों की कैप को गाय के चमड़े से बनाए जाने को लकेर ही मगल पांडे के आह्वान पर हुआ था, आज वही भारत असंख्य प्राणियों के मांस का स्वाद लेने और अपने पेट को कब्रगाह बनाने को आतुर है, अत्यंत शर्मिंगदी का विषय है।
इन निरीह प्राणियों की दर्दनाक चीख-पुकार, उनकी कोई मायने नहीं रखती? ऐसा नहीं कि उनकी संपूर्ण वातावरण प्रभावित होता है। हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के भौतिक शास्त्री प्रो. मदनमोहन ने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया है कि जितने अधिक प्राणियों का कत्ल किया जाएगा, उतने अधिक भूकंप व सुनामी आएंगे। अतः जलवायु परिवर्तन में प्राणी हिंसा एक बहुत बड़ा मुद्दा हो सकता है। प्राणियों के वध व मांसाहार के कारण अनेक तरह के रोग जैसे- दिल का दौरा, कैंसर, ब्लडप्रेशर, मोटापा, गठिया, गुर्दे के रोग एवं जिगर की बीमारी जैसे असाध्य रोगों की अधिकता होती है, यहां तक कि जीव-हत्या के प्रभाव से मनुष्यों में ‘विकलांगता’ बढ़ी है।
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Plz Mark as Brainliest .
Its By Bad.....