Hindi, asked by funnyboy1129, 1 month ago

कोरोनाकाल में भारतीय संस्कृति का पुनरुज्जीवन नुकसान स्पष्ट करे?

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Answered by arjunsinghss731
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Answer:

कोरोना से पहले की जिंदगी और बाद की जिंदगी, कितना अंतर आया है इसमें। पहले भागती-दौड़ती जिंदगी में किसी के पास हालचाल लेने तक की फुर्सत नहीं थी वहीं लॉकडाउन में घरों में रहने के कारण हमारे आपसी संबंधों में एक राग और प्रेम भी पैदा हुआ है। रिश्तों की कद्र हुई है और हम अपनों के प्रति संवेदनशील भी हुए हैं। कई पुरानी बातों को भुलाकर हमने आपसदारी को बढ़ाया है और स्नेह व अपनत्व की डोर मजबूत हुई है

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Answered by prakashkumarp445
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Answer:

कोरोना संकट के बीच हमारे समाज ने लंबा लॉकडाउन देखा है। महामारी के इस चुनौती के बीच हम सब घरों में रहने को मजबूर हुए हैं, लेकिन इस मजबूरी ने जहां जीवन जीने के तरीके बदले हैं वहीं पुराने संबंधों के प्रति एक ऊर्जा को दोबारा पैदा किया है।

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याद कीजिए कोरोना से पहले की जिंदगी और बाद की जिंदगी, कितना अंतर आया है इसमें। पहले भागती-दौड़ती जिंदगी में किसी के पास हालचाल लेने तक की फुर्सत नहीं थी वहीं लॉकडाउन में घरों में रहने के कारण हमारे आपसी संबंधों में एक राग और प्रेम भी पैदा हुआ है। रिश्तों की कद्र हुई है और हम अपनों के प्रति संवेदनशील भी हुए हैं। कई पुरानी बातों को भुलाकर हमने आपसदारी को बढ़ाया है और स्नेह व अपनत्व की डोर मजबूत हुई है।

दरअसल, कोरोना के कारण मौत का अंतहीन मंजर और उससे बचने के लिए सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन की वजह हमारा परिवेश काफी तेजी से बदला है। हम सभी घरों में बंद सोचने को मजबूर हो गए हैं कि आखिर जीवन के प्रति हमारा स्वस्थ नजरिया कैसा हो। भारतीय संस्कृति मूल रूप से, योगमयी रही है और वैसी ही संस्कृति फिर से देखने को मिल रही है।

इस पूर्ण-बंदी के दौरान लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर जो असर पड़ा है, उससे बचने के लिए हम योगा, प्राणायाम, अच्छे खान-पान तथा संयमित जीवन जीने की तरफ मुड़ रहे हैं। मौत का खौफ ही सही, पर समाज में आए इस नए बदलाव को शुभ संकेत के रूप में देखा जा सकता है। प्रकृति और स्वास्थ्य को नज़रअंदाज करके सुखी रह पाना कोरी कल्पना से कम नहीं।

इतने सालों से विलासितापूर्ण जीवन और आधुनिकता में डूबे जाने-अनजाने में प्रकृति से दूर हो गए थे। पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण, सुविधापूर्ण जीवनशैली जीते-जीते, भारतीय परपंरा, सच्ची खुशी, बच्चों का बचपन और सही मायने में खुशहाल जीवन से दूर होते चले गए।

ऐसा नहीं है कि मनोरंजन करना सही नहीं है, लेकिन अपने मनोविनोद के लिए जिस तरह की गतिविधियां हम कर रहे हैं वह व्यक्तिगत व सामाजिक पतन का कारण बन रही हैं। लेकिन एक अच्छी बात है कि हम पुन: दुष्प्रवृत्तियों से अच्छी प्रवृत्तियों की तरफ कदम बढ़ाने लगे हैं। भले ही, मौत का डर ही सही लोगों का जीवन के प्रति नजरिया बदला है।

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