।।कोरोना को दूर भागने मे मेरा सहयोग।।पर निबंध
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Answer:कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में उत्पन्न संकट से महात्मा गांधी कैसे निपटते, ये हैं नौ सूत्रीय कार्यक्रम
Answer:कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में उत्पन्न संकट से महात्मा गांधी कैसे निपटते, ये हैं नौ सूत्रीय कार्यक्रमकोई भी केंद्रीय सत्ता हमें नहीं बचा सकती. वह सिर्फ़ झूठे दावे करती है, इसका अहसास हम सभी को हो ही गया है. गांधी हमें अहिंसक ढंग से, धीमे-धीमे इस महाकाय राक्षसी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से छोटे-छोटे स्थानीय समूहों की मानवीय व्यवस्था की ओर ले जाते.आज का वैश्विक संकट तिहरा है. कोविड महामारी, गहन व्यापक आर्थिक मंदी तथा मानव अस्तित्व को खतरे में डालने वाला पर्यावरणीय परिवर्तन. इन सबके अलावा, ऐसी परिस्थिति में राह दिखाने वाले राजनीतिक व नैतिक नेतृत्व का दुनियाभर में अभाव है. इसलिए उत्तर तो कहीं और ही ढूंढ़ना पड़ेगा. महात्मा गांधी के सामने यह चुनौती खड़ी होती तो उन्होंने क्या किया होता? इस का जवाब कहां खोजा जाए? यह तो वे खुद कह ही गए हैं– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’. अत: उनके जीवन में ही ये उत्तर खोजना पड़ेगा.
Answer:कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में उत्पन्न संकट से महात्मा गांधी कैसे निपटते, ये हैं नौ सूत्रीय कार्यक्रमकोई भी केंद्रीय सत्ता हमें नहीं बचा सकती. वह सिर्फ़ झूठे दावे करती है, इसका अहसास हम सभी को हो ही गया है. गांधी हमें अहिंसक ढंग से, धीमे-धीमे इस महाकाय राक्षसी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से छोटे-छोटे स्थानीय समूहों की मानवीय व्यवस्था की ओर ले जाते.आज का वैश्विक संकट तिहरा है. कोविड महामारी, गहन व्यापक आर्थिक मंदी तथा मानव अस्तित्व को खतरे में डालने वाला पर्यावरणीय परिवर्तन. इन सबके अलावा, ऐसी परिस्थिति में राह दिखाने वाले राजनीतिक व नैतिक नेतृत्व का दुनियाभर में अभाव है. इसलिए उत्तर तो कहीं और ही ढूंढ़ना पड़ेगा. महात्मा गांधी के सामने यह चुनौती खड़ी होती तो उन्होंने क्या किया होता? इस का जवाब कहां खोजा जाए? यह तो वे खुद कह ही गए हैं– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’. अत: उनके जीवन में ही ये उत्तर खोजना पड़ेगा.उनके उत्तर में कुछ विशेषताएं तो समान होंगी. पहली तो यह कि दूसरों को उपदेश देने की बजाए सबसे पहले वे स्वयं उसका आचरण करते. तभी तो आत्मश्लाघा प्रतीत हो ऐसा वाक्य– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’ वे बोल पाए. हम बोल सकते हैं क्या? बोलकर तो देखिए. ज़बान लड़खड़ाएगी.
Answer:कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में उत्पन्न संकट से महात्मा गांधी कैसे निपटते, ये हैं नौ सूत्रीय कार्यक्रमकोई भी केंद्रीय सत्ता हमें नहीं बचा सकती. वह सिर्फ़ झूठे दावे करती है, इसका अहसास हम सभी को हो ही गया है. गांधी हमें अहिंसक ढंग से, धीमे-धीमे इस महाकाय राक्षसी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से छोटे-छोटे स्थानीय समूहों की मानवीय व्यवस्था की ओर ले जाते.आज का वैश्विक संकट तिहरा है. कोविड महामारी, गहन व्यापक आर्थिक मंदी तथा मानव अस्तित्व को खतरे में डालने वाला पर्यावरणीय परिवर्तन. इन सबके अलावा, ऐसी परिस्थिति में राह दिखाने वाले राजनीतिक व नैतिक नेतृत्व का दुनियाभर में अभाव है. इसलिए उत्तर तो कहीं और ही ढूंढ़ना पड़ेगा. महात्मा गांधी के सामने यह चुनौती खड़ी होती तो उन्होंने क्या किया होता? इस का जवाब कहां खोजा जाए? यह तो वे खुद कह ही गए हैं– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’. अत: उनके जीवन में ही ये उत्तर खोजना पड़ेगा.उनके उत्तर में कुछ विशेषताएं तो समान होंगी. पहली तो यह कि दूसरों को उपदेश देने की बजाए सबसे पहले वे स्वयं उसका आचरण करते. तभी तो आत्मश्लाघा प्रतीत हो ऐसा वाक्य– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’ वे बोल पाए. हम बोल सकते हैं क्या? बोलकर तो देखिए. ज़बान लड़खड़ाएगी.दूसरे, वे कोई भी कार्य सबसे पहले स्थानीय स्तर पर ही करते. दुनिया बदलने के लिए दुनिया के पीछे नहीं भागते. मिट्टी के एक कण में पृथ्वी देख सकने वाली दृष्टि थी उनके पास. मैं जहां हूं वहीं मेरा ‘स्व-देश’ है. मेरा कार्य यहीं आरंभ होगा. क्योंकि मैं सिर्फ यहीं कार्य कर सकता हूं. तीसरे, आरंभ में उनका कार्य मामूली या बचकाना लग सकता है, जैसे मुट्ठीभर नमक उठाना या सूत कातना लेकिन ज़रा रुकिए- इससे इतिहास बदल जाएगा.
Answer:कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में उत्पन्न संकट से महात्मा गांधी कैसे निपटते, ये हैं नौ सूत्रीय कार्यक्रमकोई भी केंद्रीय सत्ता हमें नहीं बचा सकती. वह सिर्फ़ झूठे दावे करती है, इसका अहसास हम सभी को हो ही गया है. गांधी हमें अहिंसक ढंग से, धीमे-धीमे इस महाकाय राक्षसी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था से छोटे-छोटे स्थानीय समूहों की मानवीय व्यवस्था की ओर ले जाते.आज का वैश्विक संकट तिहरा है. कोविड महामारी, गहन व्यापक आर्थिक मंदी तथा मानव अस्तित्व को खतरे में डालने वाला पर्यावरणीय परिवर्तन. इन सबके अलावा, ऐसी परिस्थिति में राह दिखाने वाले राजनीतिक व नैतिक नेतृत्व का दुनियाभर में अभाव है. इसलिए उत्तर तो कहीं और ही ढूंढ़ना पड़ेगा. महात्मा गांधी के सामने यह चुनौती खड़ी होती तो उन्होंने क्या किया होता? इस का जवाब कहां खोजा जाए? यह तो वे खुद कह ही गए हैं– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’. अत: उनके जीवन में ही ये उत्तर खोजना पड़ेगा.उनके उत्तर में कुछ विशेषताएं तो समान होंगी. पहली तो यह कि दूसरों को उपदेश देने की बजाए सबसे पहले वे स्वयं उसका आचरण करते. तभी तो आत्मश्लाघा प्रतीत हो ऐसा वाक्य– ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’ वे बोल पाए. हम बोल सकते हैं क्या? बोलकर तो देखिए. ज़बान लड़खड़ाएगी.दूसरे, वे कोई भी कार्य सबसे पहले स्थानीय स्तर पर ही करते. दुनिया बदलने के लिए दुनिया के पीछे नहीं भागते. मिट्टी के एक कण में पृथ्वी देख सकने वाली दृष्टि थी उनके पास. मैं जहां हूं वहीं मेरा ‘स्व-देश’ है. मेरा कार्य यहीं आरंभ होगा. क्योंकि मैं सिर्फ यहीं कार्य कर सकता हूं. तीसरे, आरंभ में उनका कार्य मामूली या बचकाना लग सकता है, जैसे मुट्ठीभर नमक उठाना या सूत कातना लेकिन ज़रा रुकिए- इससे इतिहास बदल जाएगा.
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