Hindi, asked by sarojahlawat54, 11 months ago

कारज सरै न कोय, बल प्राक्रम हिम्मत बिना।
हलकार्यो की होय, रंगा स्याळा राजिया।।

Answers

Answered by arshrastogi210110413
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Answer:

नैन्हा मिनख नजीक , उमरावां आदर नही |

ठकर जिणनै ठीक, रण मे पड़सी राजिया ||

जो छोटे आदमियों(क्षुद्र विचारो वाले) को सदैव अपने निकट रखता है और उमरावों ( सुयोग्य व सक्षम व्यक्तियों) का जहां अनादर है, उस ठाकुर (प्रसाशक) को रणभूमि (संकट के समय) मे पराजय का मुंह देखने पर ही अपनी भूल का अहसास होता है |

मांनै कर निज मीच, पर संपत देखे अपत |

निपट दुखी: व्है नीच, रीसां बळ-बळ राजिया ||

नीच प्रक्रति का व्यक्ति किसी दुसरे की संपति देख जलता रहता है ,और जल-जल कर नितान्त दुखी रहता है

लो घड़ता ज लुहार, मन सुभई दे दे मुणै |

सूंमा रै उर सार, रहै घणा दिन राजिया ||

लुहार अपने अहरन पर हथौड़ो से प्रहार करते समय दे दे शब्द की "भणत" बोलते है, किन्तु क्रपण व्यक्तियो के ह्र्दय मे देने का उदघोष करने वाली वह ध्वनी कई दिनो तक सालती रहती है |

हुवै न बुझणहार, जाणै कुण कीमत जठै |

बिन ग्राहक व्यौपार, रुळ्यौ गिणिजै राजिया ||

जहां किसी को कोई पुछने वाला भी नही मिलेगा तो उसके गुण का महत्व कौन समझेगा | यह सच है बिना ग्राहक के व्यापार ठप्प हो जाता है|

तज मन सारी घात, इकतारी राखै इधक |

वां मिनखां री वात, रांम निभावै राजिया ||

जो लोग अपने मन से सभी कुटिलताए त्याग कर सदैव एक सा आत्मीय व्यवहार करते है, हे राजिया ! उन मनुष्यो की बात तो भगवान भी निभाता है |

पटियाळौ लाहोर, जींद भरतपुर जोयलै |

जाटां ही मे जोर, रिजक प्रमाणै राजिया ||

पटियाला,लाहोर,जीद और भरतपुर को देख लिजिए,जहां जाटो मे ही शक्ति है,क्योकि ताकत का आधार रिजक होता है |

खग झड़ वाज्यां खेत, पग जिण पर पाछा पड़ै |

रजपुती मे रेत , राळ नचीतौ राजिया ||

रणखेत मे जब तलवारे बजने लगे, उस समय कोई रण विमुख हो जाय,तो ऐसी वीरता पर निश्चित होकर रेत डालिए |

सत्रु सूं दिल स्याप, सैणा सूं दोखी सदा |

बेटा सारु बाप, राछ घस्या क्यूं राजिया ||

जो शत्रु से मित्रता और हितेषी से द्वेष रखता हो, ऐसे बेटे को जन्म देने के लिए बाप ने व्यर्थ ही क्यो कष्ट उठाया ?

गैला गिंडक गुलाम, बुचकारया बाथा पडै |

कूटया देवै कांम , रीस न कीजै राजिया ||

पागल, कुत्ता और गुलाम ये तीनो पुचकारने से हावी होने लगते है| ये तो ताड़ने से ही काम देते है,इसमे क्रोध करना व्यर्थ है |

खीच मुफ़्त रो खाय, करड़ावण डूंकर करै |

लपर घणौ लपराय, रांड उचकासी राजिया ||

जो मुफ़्त का खीच खाकर अकड़ता हुआ डींगे हाँकता है, ऐसा फ़रेबी और ढोंगी तो किसी पराई स्त्री को भी बहका कर ले भाग सकता है|

चावळ जितरी चोट, अति सावळ कहै |

खोटै मन रौ खोट,रहै चिमकतौ राजिया ||

कोई व्यक्ति भले ही सहज भाव प्रकट क्यो न करे परन्तु हे राजिया ! उसके मन मे छिपे हुए खोट पर यदि जरासी चोट पहुंचती है, तो वह चौंकने लगता है |

(अपराधी मन सदैव आशंकित रहता है )

ये थे राजस्थान के कवि कृपाराम जी द्वारा लिखित नीति सम्बंधित दोहे जो उन्होंने अपने सेवक राजिया को संबोधित करते हुए वि.स.१८५० के आस पास या पहले लिखे होंगे | उपरोक्त दोहो का हिंदी अनुवाद किया गया है राजस्थानी विद्वान् डा.शक्तिदान कविया द्वारा " राजिया रा सोरठा" नामक पुस्तक में | यदि आप यह पुस्तक प्राप्त करना चाहते है तो राजस्थानी ग्रंथागार सोजती गेट जोधपुर से मंगवा सकते है |

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