किसी भी देश या राष्ट्र के लिए उसके नागरिकों को पढ़ा लिखा होना क्यों आवश्यक है इस विषय पर अपना विचार दीजिए प्रस्ताव लेखन
Answers
Answer:
नवजात शिशु असहाय तथा असामाजिक होता है। वह न बोलना जनता है न चलना-फिरना। उसका न कोई मित्र होता है और न शत्रु। यही नहीं, उसे समाज के रीती-रिवाजों तथा परम्पराओं का ज्ञान भी नहीं होता है और न ही उसमें किसी आदर्श तथा मूल्य को प्राप्त करने की जिज्ञासा पाई जाती है। परन्तु जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे उस पैर शिक्षा के औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों का प्रभाव पड़ता जाता है। इस प्रभाव के कारण उसका जहाँ एक ओर शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक विकास होता जाता है वहाँ दूसरी ओर उसमें सामाजिक भावना भी विकसित होती जाती है। परिणामस्वरुप वह शैने-शैने: प्रौढ़ व्यक्तिओं के उतर्दयित्वों को सफलतापूर्वक निभाने के करने के योग्य बन जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक के व्यव्हार में वांछनीय परिवर्तन करने के लिए व्यवस्थित शिक्षा की परम आवश्यकता है। सच तो यह है कि शिक्षा से इतने लाभ हैं कि उनका वर्णन करना कठिन है। इस संदर्भ में यहाँ केवल इतना कह देना ही पर्याप्त होगा की शिक्षा माता के सामान पालन-पोषण करती है, पिता के समान उचित मार्ग-दर्शन द्वारा अपने कार्यों में लगाती है तथा पत्नी की भांति सांसारिक चिन्ताओं को दूर करके प्रसन्नता प्रदान करती है। शिक्षा के ही द्वारा हमारी कीर्ति का प्रकाश चारों ओर फैलता है तथा शिक्षा ही हमारी समस्याओं को सुलझाती है एवं हमारे जीवन को सुसंस्कृत करती है। हम देश में रहें अथवा विदेश में शिक्षा हमारे लिए क्या-क्या नहीं करती। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश पाकर कमल का फूल खिल उठता है तथा सूर्य अस्त होने पर कुम्हला जाता है, ठीक उसी प्रकार शिक्षा के प्रकाश को पाकर प्रत्येक व्यक्ति कमल के फूल की भांति खिल उठता है तथा अशिक्षित रहने पर दरिद्रता, शोक एवं कष्ट के अंधकार में डूबा रहता है। संक्षेप में, शिक्षा वह प्रकाश है जिसके द्वारा बालक की समस्त शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा अध्यात्मिक शक्तियों का विकास होता है। इससे वह समाज का एक उतरदायी घटक एवं राष्ट्र का प्रखर चरित्र-संपन्न नागरिक बनकर समाज की सर्वांगीण उन्नति में अपनी शक्ति का उतरोतर प्रयोग करने की भावना से ओत-प्रोत होकर संस्कृति तथा सभ्यता को पुनर्जीवित एवं पुर्नस्थापित करने के लिए प्रेरित हो जाता है। जिस प्रकार एक ओर शिक्षा बालक का सर्वांगीण विकास करके उसे तेजस्वी, बुद्धिमान, चरित्रवान, विद्वान्, तथा वीर बनती है, उसी प्रकार दूसरी ओर शिक्षा समाज की उन्नति के लिए भी एक आवश्यक तथा शक्तिशाली साधन है। दुसरे शब्दों में, व्यक्ति की भांति समाज भी शिक्षा के चमत्कार से लाभान्वित होता है। शिक्षा के द्वारा समाज भावी पीढ़ी के बालकों को उच्च आदर्शों, आशाओं, आकांक्षाओं, विश्वासों तथा परमपराओं आदि सांस्कृतिक सम्पत्ति को इस प्रकार से हस्तांतरित करता है कि उनके ह्रदय में देश-प्रेम तथा त्याग की भावना प्रज्वलित हो जाती है। जब ऐसी भावनाओं तथा आदर्शों से भरे हुए बालक तैयार होकर समाज अथवा देश की सेवा का व्रत धारण करके मैदान में निकलेंगे तथा अपने शिखर पर चढ़ता ही रहेगा। इस प्रकार व्यक्ति तथा समाज दोनों ही के विकास में शिक्षा परम आवश्यक है।