किसी एक सत्तावादी राज्य का संदभि लेते हुए सत्तावादी राज्य की प्रकृति की व्याख्या
कीजजए।
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राजनीतिक व्यवस्था के एक प्रकार के रूप में 'सर्वसत्तावाद' एक ऐसा पद है जो निरंकुशता, अधिनायकवाद और तानाशाही जैसे पदों का समानार्थक लगता है। यद्यपि इस समानार्थकता को ख़ारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद प्रचलित ज्ञान के समाजशास्त्र की निगाह से देखने पर सर्वसत्तावाद भिन्न तात्पर्यों से सम्पन्न अभिव्यक्ति की तरह सामने आता है। शुरुआत में इतालवी फ़ासिस्ट सर्वसत्तावाद को अपनी व्यवस्था के सकारात्मक मूल्य की तरह पेश करते थे। पर बाद में इसका अधिकतर इस्तेमाल शीतयुद्धीन राजनीति के दौरान पश्चिमी ख़ेमे के विद्वानों द्वारा किया गया ताकि उदारतावादी लोकतंत्र के ख़ाँचे में फ़िट न होने वाली व्यवस्थाओं को कठघरे में खड़ा किया जा सके। इन विद्वानों ने सर्वसत्तावाद के जरिये राजनीतिक व्यवस्थाओं के इतिहास का फिर से वर्गीकरण करने का प्रयास किया। इसके परिणामस्वरूप नाज़ी जर्मनी, फ़ासीवादी इटली, स्तालिनकालीन सोवियत संघ और सेंडिनिस्टा की हुकूमत वाले निकारागुआ को ही सर्वसत्तावादी श्रेणी में नहीं रखा गया, बल्कि प्लेटो द्वारा वर्णित रिपब्लिक, चिन राजवंश, भारत के मौर्य साम्राज्य, डायक्लेटियन के रोमन साम्राज्य, कैल्विनकालीन जिनेवा, जापान के मीज़ी साम्राज्य और प्राचीन स्पार्टा को भी उसी पलड़े में तौल दिया गया।
बीसवीं सदी के दूसरे दशक से पहले समाज-विज्ञान में इस पद का इस्तेमाल किया ही नहीं जाता था। 1923 में इतालवी फ़ासीवाद का एक प्रणाली के रूप वर्णन करने के लिए गियोवानी अमेंडोला ने इसका प्रयोग किया। इसके बाद फ़ासीवाद के प्रमुख सिद्धांतकार गियोवानी जेंटील ने बेनिटो मुसोलिनी के नेतृत्व में स्थापित व्यवस्था को ‘टोटलिरिटो’ की संज्ञा दी। यह नये किस्म का राज्य जीवन के हर क्षेत्र को अपने दायरे में लेने के लिए तत्पर था। वह राष्ट्र और उसके लक्ष्यों का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व करने का दावा करता था। मुसोलिनी ने टोटलिटेरियनिज़म को एक सकारात्मक मूल्य की तरह व्याख्यायित किया कि यह व्यवस्था हर चीज़ का राजनीतीकरण करने वाली है, चाहे वह आध्यात्मिक हो या पार्थिव। मुसोलिनी का कथन था : ‘हर चीज़ राज्य के दायरे में, राज्य के बाहर कुछ नहीं, राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं।’ फ़ासीवादियों द्वारा अपनाये जाने के बावजूद 1933 में प्रकाशित इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पहले संस्करण से यह पद नदारद है। हान्ना एरेंत द्वारा किये गये विख्यात विश्लेषण में सर्वसत्तावाद को राजनीतिक उत्पीड़न के पारम्परिक रूपों से भिन्न बताया गया है। एरेंत के अनुसार बीसवीं सदी में विकसित हुई इस राज्य-व्यवस्था का इतिहास नाज़ीवाद से स्तालिनवाद के बीच फैला हुआ है। यह परिघटना विचारधारा और आतंक के माध्यम से न केवल एक राज्य के भीतर बल्कि सारी दुनिया पर सम्पूर्ण प्रभुत्व कायम करने के सपने से जुड़ी है। विचारधारा से एरेंत का मतलब इतिहास के नियमों का पता लगा लेने की दावेदारियों से था। आतंक के सर्वाधिक भीषण उदाहरण के रूप में उन्होंने नाज़ी यातना शिविरों का हवाला दिया। उन्होंने समकालीन युरोपीय अनुभव की व्याख्या करते हुए उन आयामों की शिनाख्त की जिनके कारण सर्वसत्तावाद मुमकिन हो सका। उन्होंने दिखाया कि यहूदियों की विशिष्ट राजनीतिक और सामाजिक हैसियत के कारण सामीवाद विरोधी मुहिम को नयी ताकत मिली; साम्राज्यवाद के कारण नस्लवादी आंदोलन पैदा हुए; और युरोपीय समाज के उखड़े हुए समुदायों में बँट जाने के कारण अकेलेपन और दिशाहीनता के शिकार लोगों को विचारधाराओं के ज़रिये गोलबंद करने में आसानी हो गयी। एरेंत के बाद दार्शनिक कार्ल पॉपर ने प्लेटो, हीगेल और मार्क्स की रैडिकल आलोचना करते हुए ‘यूटोपियन सोशल इंजीनियरिंग’ के प्रयासों को (चाहे वह जर्मनी में की गयी हो या रूस में) सर्वसत्तावाद का स्रोत बताया। पॉपर के चिंतन ने जिस समझ की नींव डाली उसके आधार पर आंद्रे ग्लुक्समैन, बर्नार्ड हेनरी लेवी और अन्य युरोपियन दार्शनिकों ने बीसवीं सदी में सोवियत संघ में हुए मार्क्सवाद के प्रयोग से मिली निराशाओं के तहत इस पद का प्रयोग जारी रखा। धीरे-धीरे सर्वसत्तावाद पश्चिम के वैचारिक हथियार के रूप में रूढ़ हो गया।
शासन पद्धतियों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वानों कार्ल फ़्रेड्रिख़ और ज़िगनियू ब्रेज़िंस्की ने सर्वसत्तावाद की परिभाषा जीवन के हर क्षेत्र को अपने दायरे में समेट लेने वाली विचारधारा, एक पार्टी की हूकूमत वाले राज्य, ख़ुफ़िया पुलिस के दबदबे और आर्थिक-सांस्कृतिक-प्रचारात्मक ढाँचे पर सरकारी जकड़ के संयोग के रूप में की। यह परिभाषा अपने आगोश में फ़ासीवादी और मार्क्सवादी व्यवस्थाओं को समेट लेती थी। पर सत्तर के दशक में सर्वसत्तावाद के ज़रिये पश्चिमी विद्वानों ने नयी कारीगरी करने की कोशिश की और मार्क्सवादी हुकूमतों को फ़ासीवादी हुकूमतों से अलग करके दिखाया जाने लगा। इस दिलचस्प कवायद का परिणाम ‘सर्वसत्तावाद’ और ‘अधिनायकवाद’ की तुलनात्मक श्रेणियों में निकला। इसके तहत दक्षिणपंथी ग़ैर-लोकतांत्रिक राज्यों (जिनसे पश्चिम गठजोड़ बनाये हुए था) को ‘टोटलिटेरियन’ वामपंथी राज्यों के मुकाबले बेहतर ठहराने के लिए ‘एथॉरिटेरियन’ नामक नयी संज्ञा को जन्म दिया गया। इस बौद्धिक उपक्रम के कारण सर्वसत्तावाद का प्रयोग पूरी तरह से बदल गया। जो पद शुरुआत में फ़ासीवाद को परिभाषित करने के लिए इस्तेमाल किया गया था और जिसे अपनी बौद्धिक वैधता आधुनिक तानाशाहियों के वामपंथी और दक्षिणपंथी रूपों को एक ही श्रेणी में रखने से मिली थी, उसे रोनाल्ड रेगन के राष्ट्रपतित्व के दौरान केवल कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं के वर्णन में सीमित कर दिया गया।
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