Hindi, asked by krupa212010106, 3 months ago

किसी निर्जीव वस्तु की आत्मकथा लिखिए ।
(300शब्दों में)

Answers

Answered by keshatripathi16
5

Answer:

  • एक किताब की आत्मकथा

कहना मुश्किल है कि मेरी कहानी कहां शुरू हुई, मैं अस्तित्व में कैसे आई? दुनिया में मेरे आने की कोई खुशी मनी हो, तो मुझे उसकी खबर नहीं है। खुशी तो शायद मेरे लिखने वाले को भी नहीं हुई। मुझे हाथों में लेकर तेजी से पलटते हुए पहली चीज जो उसके मुंह से निकली, वह ‘च्च च्च’ के अनंतर अविश्वास, दर्द व गुस्से की ध्वनियां थीं। क्यों मैं इस संसार में आई, किसे मेरी जरूरत थी? कितने अरमान थे, विश्वविद्यालयों में यूं ही इठलाती, टहलती पहुंच जाऊंगी, पुस्तकालयों में लड़कियां मुझे देखकर जल मरेंगी, तुर्की से कोई युवा आलोचक, आंखों में चमक और होठों पर विस्मित हंसी लिए चला आएगा और रहस्य भरी तनी नजरों के हर्ष में फुसफुसाकर ऐलान करेगा, ‘यही तो वह किताब है, जिसे मैं खोजता फिर रहा था!’

कितने अरमान थे कि इस्तांबुल जाऊंगी, वहां से ठुमकती पेरिस पहुंचकर गलीमार्द की कुरसी पर पसरकर संस्कृति-नागर को सन्न कर दूंगी, फिर वहां से भागकर लंदन को बांहों में ऐसे भर लूंगी कि न्यूयॉर्क के सारे बुद्धि-रसिक-वणिक जलकर खाक होते, ढाक के पात होते रहेंगे! सब धरा रह गया। मैं इसी धरा पर धरी रह गई। ऐसा क्योंकर हो गया? मैं थक गई हूं। पक गई हूं। ताज्जुब होता है कि इतनी तकलीफों के बावजूद कैसे अभी तक छपी हुई हूं, पन्नों पर छितराए अक्षरों में बची हुई हूं, जबकि मेरे लिए सस्ती मारकिन की कुरती व एक सस्ता पेटीकोट खरीदने वाला यहां कोई नहीं, मुझे हाथों में लेकर खुशी का तराना गाए, ऐसा तो कतई नहीं। फिर भी हूं! कैसी हूं?


krupa212010106: THANK YOU SO MUCH
keshatripathi16: Welcome
Answered by lakshaysoni01279473
2

Answer:

जल ही जीवन है यह एक वैज्ञानिक सत्य है। आज कल की परिस्थिति यह हो गयी है की पानी के लिए हर जगह त्राहिमाम मचा हुआ है गर्मी में खाना मिले या न मिले पर पानी जरुर चाहिए। पानी की समस्या सिर्फ शहरों या महानगरों में ही नहीं अब तो गाँवो में भी पीने का पानी सही ढंग से नई मिल पा रहा है। हम पानी की समस्या से इतने जूझ रहे हैं फिर भी हम पानी का सही इस्तेमाल कैसे करें या पानी को कैसे ज्यादा से ज्यादा बचाएं इसके बारे में हम नहीं सोचते पानी को व्यर्थ बहने से बचाना होगा उसे सहेजना होगा ताकि हम अपना पानी बचा सकें।

मैं जब भी बरसती हूं, जी भरकर बरसती हूं। फिर यह नहीं देखती कि कहां बरस रही हूं। कभी तो मैं खुशियों की बहारें ले आती हूं, तो कभी कहर बरपा देती हूं। मैं तो धरती पर समाने के लिए बरसना चाहती हूं, पर कई बार ऐसा भी होता है, मुझे धरती पर समाने के लिए कहीं भी जगह नहीं मिलती। कंक्रीट के इस जंगल में समाने के लिए कोई जगह ही नहीं है मेरे लिए। इसीलिए शायद शहरवासी प्यासे हो जाते हैं। वे मुझे सहेजना ही नहीं चाहते।मैं एक बूंद हूं। मेरी असलियत से अनजान आप मुझे पानी की एक बूंद कह सकते हैं या फिर ओस की एक बूंद भी। नदी, झरने, झील, सागर की लहरों का एक छोटा रूप भी। लेकिन मेरी सच्चाई यह है कि मैं पलकों की सीप में कैद एक अनमोल मोती के रूप में सहेजकर रखी हुई आंसू की एक बूंद हूं। इस सृष्टि के सृजनकर्ता ने जब शिशु को धरती पर उतारा तो उसकी आंखों में मुझे पनाह दी। ममत्व की पहचान बनकर मैं बसी थी मां की पलकों में और धीरे से उतरी थी उसके गालों पर। गालों पर थिरकती हुई बहती चली गई और फिर भिगो दिया था मां का आंचल। उस समय मैं खुशियों की सौगात बनकर मां की आंखों से बरसी थी। दुआओं का सागर उमड़ा था और उसकी हर लहर की गूंज में शिशु का क्रंदन अनसुना हो गया था।

एक नन्ही-सी बूंद मुझमें ही समाया है सारा संसार। कभी मैं खुशी के क्षणों में आंखों से रिश्ता तोड़ती हूं, तो कभी गम के पलों में। बरसना तो मेरी नियति है। मैं बरसती हूं तो जीवन बहता है। जीवन का बहना जरूरी है। मैं ठहरती हूं, तो जीवन ठहरता है। जीवन का हर पल दूजे पलों से अनजाना होकर किसी कोने में दुबक गया है। इसलिए इस ठहराव को रोकने के लिए मेरा बरसना जरूरी है। मुझमें जो तपन है, वो रेगिस्तान की रेत में नहीं, पिघलती मोम की बूंदों में नहीं, सूरज की किरणों में नहीं और आग की चिंगारी में भी नहीं। मुझमें जो ठंडक है, वो चांद की चांदनी में नहीं, सुबह-सुबह मखमली घास पर बिखरी ओस की बूंदों में नहीं, पुरवैया में नहीं और हिम शिखर से झरते हिम बिंदुओं में भी नहीं। मेरी तपन, मेरी ठंडक अहसासों की एक बहती धारा है, जो अपनी पहचान खुद बनाती है।

मैं जब भी बरसती हूं, जी भरकर बरसती हूं। फिर यह नहीं देखती कि कहां बरस रही हूं। कभी तो मैं खुशियों की बहारें ले आती हूं, तो कभी कहर बरपा देती हूं। मैं तो धरती पर समाने के लिए बरसना चाहती हूं, पर कई बार ऐसा भी होता है, मुझे धरती पर समाने के लिए कहीं भी जगह नहीं मिलती। कंक्रीट के इस जंगल में समाने के लिए कोई जगह ही नहीं है मेरे लिए। इसीलिए शायद शहरवासी प्यासे हो जाते हैं। वे मुझे सहेजना ही नहीं चाहते। बहना मेरा स्वभाव है, तो मुझे बहने दो ना। क्यों रोकते हो, मुझे? रिस-रिसकर मैं जितना धरती पर समाऊंगी, उतना ही उसे उपजाऊ भी करूंगी। मेरी भावनाएं गलत नहीं हैं, फिर भी कोई मुझे समझना नहीं चाहता। क्या करूं, अपना स्वभाव छोड़ नहीं सकती। आखिर कहां जाऊं, क्या करूं, बता सकते हैं आप?

इस बार आपसे एक वादा लेना चाहती हूं। मैं अपनी असंख्य सखियों के साथ जब आपके आंगन में जमकर बरसूंगी, तब आपको सारी बूंदों को सहेजना होगा। बस कुछ ही दिनों की बात है। अभी तो गर्मी की तपिश सह लें, सूरज के तेवर को समझ लें। घनघोर तपिश के बाद जब मेरा पदार्पण होगा, तब प्रकृति खिलखिलाएगी, मोर नाचेंगे, हिरण कुलांचें भरेगा, गोरैया चहकेगी, हृदय के किसी सुनसान कोने से उठेंगी प्यार की तरंगें। बस एक ही वादा, हर बूंद को सहेजना होगा, तभी मेरा जन्म सार्थक होगा। मैं बूंद हूं। कभी पलकों पर मेरा बसेरा होता है तो कभी अधरों पर मेरा आशियाना। मुझे तो हर हाल में, हर अंदाज में जीना है। मैं जी रही हूं और मैं जीती रहूंगी। जब तक मैं इस धरती पर हूं, जिंदगी गुनगुनाएगी, मुस्कराएगी, रिमझिम फुहारों-सी भीगेगी और अपनी एक कहानी कह जाएगी। कहानियां बनती रहें जिंदगी गुनगुनाती रहे बस यही कामना।

Similar questions